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उन्हें लगता है कि यह पैसा उन्हें नहीं देना चाहिए, क्योंकि आखिरकार यह तो उनके ऊपर एक प्रकारका अन्यायपूर्ण और भारी मासिक कर ही हुआ। क्या किया जाये? क्या चमार कुएँके लिए सरकारी अधिकारियोंके पास जमीन माँगने जायें? क्या यह असहयोगके विरुद्ध नहीं होगा।

पूछे हुए प्रश्नका उत्तर अत्यन्त ही सरल है। चमार कोई असहयोगी तो हैं नहीं। उनकी कोई राजनीति भी नहीं है। किन्तु कट्टरसे-कट्टर असहयोगीको भी आवश्यक प्रयोजनके लिए सरकारसे जमीन खरीदने या प्राप्त करनेकी मनाही नहीं है। निःसन्देह ऐसे अवसर जितने कम आयें उतना ही अच्छा। किन्तु इस सम्बन्धमें कांग्रेसका प्रस्ताव प्रतिबन्ध नहीं लगाता। जो असहयोगी प्रस्तावकी भावनाको समझता है, वह निश्चय ही आर्थिक लाभके लिए सरकारसे जमीन नहीं खरीदेगा वर्तमान प्रसंगमें, जमीन एक प्राकृतिक आवश्यकताकी पूतिके लिए चाहिए और यदि चमार सरकारसे कुआँ खोदने के लिए जमीन पा सकते हों तो मेरी रायमें पक्केसे-पक्के असहयोगीको भी इस कार्य में उनकी सहायता करते हुए कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

इस प्रश्नका उत्तर देना तो मेरे लिए बड़ा ही आसान था; परन्तु उन हिन्दू जमींदारों के बारेमें क्या कहा जाये, जिनमें इतनी शिष्टता और सामान्य दयालुता भी नहीं है कि वे उन लोगोंको, जो उन्हींके धर्मके अनुयायी है और जो सैकड़ों तरहसे उनकी सेवा करते हैं, उचित समयपर पानी दे सकें? और यह सारी हृदयहीनता धर्मके नामपर बरती जाती है। यदि चमारों द्वारा उपयोग किये जाने से कुएँके अपवित्र हो जानेकी सम्भावना है तो स्वयं ये जमींदार इस एकाधिकारका सुख भोगनेके लिए मालीकी तनख्वाह अपनी जेबसे क्यों नहीं देते? वे उन्हें कुआँ खोदनेके लिए थोड़ी-सी जमीन क्यों नहीं दे देते? क्या पत्र-लेखक बता सकेंगे कि चमारोंने जमींदारोंसे जमीन माँगी थी या नहीं? यदि चमारोंका एक शिष्टमण्डल उनसे मिले तो वे कदाचित्ज मीन तो दे ही देंगे, बल्कि खुद पैसा खर्च करके कुआँ भी खुदवा देंगे। यदि यह प्रयत्न नहीं किया गया है तो अब किया जाना चाहिए; सरकारसे जमीन प्राप्त करके कष्टका निवारण तुरन्त किया जा सकता है। किन्तु अस्पृश्यता विरोधी अभियान तो हिन्दू धर्मके एक कलंकको धो डालनेका प्रयास है। कितने ही पृथक कुएँ क्यों न खोदे जायें, उनसे यह कलंक नहीं धुलने का। अतः हिन्दू सुधारकोंके आगे दो काम है――अपने कष्ट-पीड़ित भाइयोंका कष्ट-निवारण करना और उपयुक्त ढँगसे उन लोगों के हृदयोंको बदलना जो अपने ही आत्मीयजन और सम्बन्धियोंको अछूत समझनेकी निन्दनीय और अमानुषिक प्रथामें विश्वास करते हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २२-५-१९२४
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