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वक्तव्य : एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडियाको


नहीं है कि यह मतभेद सिर्फ “असहयोग” शब्दको व्याख्यासे सम्बद्ध हो। इसका सम्बन्ध तो मूलभूत मनोवृत्तिसे है, जिसके परिणामस्वरूप महत्वपूर्ण समस्याओंसे निबटने के हमारे तरीकोंमें फर्क पड़ जाता है। त्रिविध बहिष्कारकी सफलता-विफलताका निर्णय इसी मनोवृत्तिकी पृष्ठभूमिमें किया जाना है; केवल उपलब्ध परिणामोंके आधारपर इसका निर्णय नहीं हो सकता। इसी दृष्टिकोणसे में यह कहता हूँ कि विधायक संस्थाओंमें प्रवेश करने की अपेक्षा उनसे बाहर रहना देशके लिए लाख दर्जे लाभदायक है।

यद्यपि मैं स्वराज्यवादी भाइयोंको अपने दृष्टिकोणसे सहमत नहीं कर पाया; फिर भी मैं यह स्वीकार करता हूँ कि जबतक उनके विचार मुझसे इस प्रकार भिन्न है, तबतक निःसन्देह उनके लिए कौंसिल-प्रवेश उचित ही है। यही हम सबके लिए उत्तम है। मैंने यह अपेक्षा भी नहीं की थी कि स्वराज्यवादी बातचीतके दौरान दी जानेवाली मेरी दलीलोंके कायल हो जायेंगे। उनमें से अनेक तो सर्वाधिक योग्य, अनुभवी और सच्चे देशभक्तोंकी कोटिमें आते हैं। उन्होंने पूरी तरह सोचे-विचारे बिना विधायक संस्थाओंमें प्रवेश नहीं किया है और इसलिए जबतक अनुभवसे उन्हें इस बातकी प्रतीति नहीं हो जाती कि उनके तरीके बेकार हैं, तबतक यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि वे अपना कदम वापस ले लेंगे।

इसलिए देशके सामने सवाल यह नहीं है कि वह मेरे और स्वराज्यवादियोंके मतभेदोंके गुण-दोषपर विचार करके उनके बारेमें कोई फैसला करे। कौंसिल-प्रवेश हो ही चुका; अब सवाल यह है कि करना क्या है? क्या असहयोगियोंको स्वराज्य-वादियोंके तरीकेके प्रति अपना विरोध कायम रखना चाहिए? या कि उन्हें तटस्थ रहना चाहिए और सम्भाव्य अथवा अपने सिद्धान्तोंसे संगत होने पर स्वराज्यवादियोंकी मदद भी करनी चाहिए।

जिन कांग्रेस-जनोंको कौंसिलों और विधानसभामें जाने के बारेमें अन्तरात्माकी बाधा न हो, उन्हें दिल्ली और कोकनाडाके प्रस्तावोंने ऐसा करनेकी छूट दे दी है। इसलिए मेरे विचारसे स्वराज्यवादियोंका विधायक संस्थाओं में प्रवेश करना और अपरिवर्तन-वादियोंसे पूर्ण तटस्थताकी अपेक्षा रखना अनुचित नहीं है। उनका विघ्न-बाधाका तरीका अपनाना भी उचित ही है, क्योंकि उनकी नीति ऐसी ही थी और कांग्रेसने उनके इन संस्थाओं में प्रवेश करने के बारे में किसी प्रकारकी शर्त नहीं रखी थी। वहाँ यदि स्वराज्यवादियोंके काममें प्रगति होती है और देशको उससे लाभ होता है तो, उस प्रत्यक्ष प्रमाणका परिणाम यही होगा कि उनके तरीकोंके बारेमें ईमानदारीसे शंका करनेवाले मुझ-जैसे लोगोंको अपनी भूलकी प्रतीति हो जायेगी और यदि कहीं अनुभवसे स्वराज्यवादियोंके ही मनका भ्रम दूर हो जाता है तो म जानता हूँ कि उनमें इतनी देशभक्ति अवश्य है कि वे अपने कदम वापस ले लेंगे।

इसलिए मैं स्वराज्यवादियोंके मार्गमें कोई विघ्न उपस्थित करने या विधान सभाओंके लिए उनके निर्वाचनके खिलाफ किसी प्रचारमें शरीक नहीं होऊँगा। लेकिन साथ ही, जिस योजनामें मेरा विश्वास नहीं है, उसे लागू करने में मैं उन्हें कोई सहायता भी नहीं पहुँचा सकता। दिल्ली और कोकनाड़ाके प्रस्तावोंका उद्देश्य स्वराज्य-वादियोंको कौंसिल प्रवेशके तरीकेको आजमानेका एक मौका देना था और यह उद्देश्य