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सत्याग्रही गालियाँ
डेढ़ अथवा दो आने हमारे किसी गरीब पिंजारेको मिलेंगे;
चार या छ: आने हमारी किसी गरीब कातनेवाली बहनको मिलेंगे;
आठ या नौ आने इन बहनोंका सूत बुननेवाले किसी बुनकरको मिलेंगे;
३ पैसे हमारे किसी धोबीको मिलेंगे।
आप खादी पहनेंगे तो ये सब पैसे देश में रहेंग और हमारे किन्हीं गरीब भाइयों और बहनोंको मिलेंगे।

यह बात न केवल मजदूर भाइयोंको ही वरन् प्रत्येक भाई और बहनको गाँठमें बाँध लेनी चाहिए।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २५-५-१९२४

६५. सत्याग्रही गालियाँ

मैंने “उतावला काठियावाड़” शीर्षक लेखमें सत्याग्रही गालियोंका उल्लेख किया है। एक सज्जन सत्याग्रही गालियोंकी फेहरिस्त चाहते हैं, जिससे वे उन्हें सीखकर दूसरोंको दे सकें। पहली शर्त तो यह है कि असत्याग्रही अथवा दुराग्रही मनुष्य गालियाँ दे ही नहीं सकता। यदि वह दे तो वे उसके मुँहसे अवश्य भोंड़ी लगेंगी। जो मनुष्य इस नियमको समझ लेगा उसे फेहरिस्त देनेकी जरूरत न रहेगी।

सत्याग्रही गालियाँ अनन्त है। जिस प्रकार प्रेमकी कोई सीमा नहीं है उसी प्रकार सत्याग्रही गालियोंकी भी सीमा नहीं है। यदि मैं वल्लभभाईको सत्याग्रही गालियाँ देना चाहूँ तो मैं यह कहूँगा: “यह पटेलवा खुद तो नंगा हो ही गया है अब दूसरोंको भी लूटने लगा है। इसीलिए उसकी नजरमें दस लाख रुपये कोई चीज नहीं।” अब्बास साहबको[१] यदि सत्याग्रही गालियाँ देनी हों तो कहेंगे: “बुड्ढा ठहरा। घर-बार छोड़कर सारा दिन भटकता-फिरता है। उसे न धूपकी परवाह है, न छाँहकी। लोगोंको परेशान करता ही रहता है? बुड्ढेका क्या? उसे रोक भी कौन सकता है?” पट्टणीजीको ऐसी ही गालियाँ देनी हों तो कहेंगे――“वे काठियावाड़के राजाओंको नाच नचाते हैं, गवर्नरोंको फुसलाकर भावनगरको ऊँचा चढ़ाते हैं और अब काठियावाड़ियोंको फुसलाने चले है। परन्तु हम भी सच्चे काठियावाड़ी या सच्चे भावनगरी होंगे तो उन्हें मजा चखा देंगे। हम राजाओं या गोरे साहबों-जैसे भोले-भाले नहीं हैं। हम तो हैं ‘जैसोंके साथ तैसे।’

ये तो मैंने सत्याग्रही गालियोंके सौम्य प्रयोग करके दिखाये। पूरी-पूरी गालियाँ तो खुद मैं भी नहीं जानता। मैं तो प्रेमाग्रही हूँ। यदि प्रेममूर्ति होता तो गोपियोंकी तरह गालियाँ लिख देता। कृष्णको “माखन-चोर” और “लुटेरा” आदि विशेषणोंसे गोपियाँ ही सम्बोधित कर सकती हैं। नरसिंह मेहता तो कृष्ण-जैसे अखण्ड ब्रह्मचारीको

 
  1. अब्बास तैयबजी।