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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अतः राजपूत परिषद्का प्रथम कर्तव्य आत्मोन्नति है। राजपूत अपने हकोंकी बात तो करेंगे ही; परन्तु वह अपने कर्तव्यकी बात पहले करें। वे व्यसनोंको छोड़ें, सादगी ग्रहण करें, गरीबसे-गरीब काठियावाड़ीको पहचानें, उसके दुःखमें शरीक हों और उसकी सेवा करें। उनके सेवा करने के इस हकको उनसे कोई नहीं छीन सकता। यदि काठियावाड़के किसी भी मनुष्यको काठियावाड़ छोड़ना पड़े तो राजपूतोंको लज्जित होना चाहिए। जहाँ चरखा है, पीजन है, करघा है, वहाँ आजीविका तो है ही। काठियावाड़ी काठियावाड़की अमृत-जैसी वायुको छोड़कर बम्बईको दूषित वायुमें क्यों जायें? इसका जवाब दूसरे काठियावाड़ियोंके पहले राजपूतोंको देना चाहिए। यह लांछन काठियावाड़के राजाओंपर ही है। यदि काठियावाड़के राजा प्रजाके हितका ही विचार करें तो काठियावाड़की प्रजाको यह देश-निकाला क्यों भोगना पड़े? राजपूत परिषदें राजा लोग तो नहीं होंगे; परन्तु यदि राजपूत चाहें तो राजाओंको भी यह बात समझनी पड़ेगी। यह जमाना लोकतन्त्रका है। अत: प्रजाजन जैसे होंगे वैसा ही राजाको होना और रहना पड़ेगा। राजपूत जन-जागृतिमें खासी सहायता दे सकते हैं।

यदि परिषद्के सदस्य दूसरोंके ऐब बताने के बदले अपने ऐब दूर करनेमें और अधिक समय दें तो वे दूसरोंको भी सन्मार्ग दिखा सकेंगे। आजकल हम अपने कष्टोंके लिए दूसरोंको दोष देते हैं। हम भूल जाते हैं अथवा भूल जाना चाहते हैं कि अपने कष्टोंके लिए खुद हम ही जिम्मेदार हैं। यदि जुल्मको बरदाश्त करनेवाले ही न हों तो जालिम क्या करेगा? जबतक हम अधीन हो जानेकी कमजोरीको कायम रखेंगे तबतक अधीन करनेवाले तो मिलते ही रहेंगे। हमारा अधीन करनेवालोंको गालियाँ देना आसान परन्तु व्यर्थका उद्यम है। अपनी कमजोरियोंको खोजकर दूर करना कठिन तो है, परन्तु फलदायक तो यही है। इस कमजोरीको दूर करनेका उपाय हमारे ही हाथमें है, अत: उसे हमसे कोई नहीं छीन सकता।

राजपूत परिषद्के सदस्य इन विचारोंको प्रथम स्थान देकर आत्म-निरीक्षण करें, उनसे मेरी यही प्रार्थना है।

मैं अन्तमें उन्हें एक अनुभवसिद्ध बात बताये देता हूँ। वे भाषणोंसे और भाषण करनेवालोंसे सावधान रहें। उनसे दूर रहना अच्छा है। यदि वे चुपचाप काम करनेका तरीका अख्तियार करेंगे तो काम सुधरेगा। भूखके दुःखोंका केवल रोना रोनेवाला मनुष्य किसी दूसरेकी भूखको शान्त नहीं कर सकता। परन्तु यदि एक जन्मतः गूंगा साधु पुरुष भूखेके पास एक मुट्ठी ज्वार-बाजरा ले जायेगा तो उससे भूखे आदमीकी आँखोंमें जान आ जायेगी, उसके चेहरेपर लाली झलकने लगेगी और उसके ओठोंपर मुसकान नजर आयेगी। उसकी आत्मा उस गूंगे आदमीको दुआ देगी। ईश्वर हमें व्याख्यानोंके द्वारा शिक्षा नहीं देता। वह तो सदा कर्मरत रहता है। जब हम सो जाते हैं तब भी वह जागता रहता है। उसे काम छोड़कर बोलनेका समय ही नहीं रहता। राजपूत केवल काम करके ही काठियावाड़के दूसरे वाचाल, राजनीतिपटु कार्यकर्ताओंको पदार्थपाठ पढ़ायें――यही उनसे मेरा निवेदन है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २५-५-१९२४