पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऐसी भाषामें लिखना चाहिए जिसका अनर्थ न हो सके। लेकिन जिसे ऐसी भाषा प्राप्त है उसे क्या कुछ लिखनेकी जरूरत रह जाती है? अपूर्ण मनुष्य ही लिखता है। इसलिए हमें एक दूसरेकी अपूर्णताको सहन करना ही चाहिए। यदि हम उसे दूर करनेका प्रयत्न करने की अपेक्षा केवल मिठासको ही बनाये रखें तो यद्यपि हम पूर्ण तो न बन पायेंगे तथापि अपनी अपूर्णताको कम अवश्य कर सकेंगे।

पाठकोंके लिए और मेरे लिए यह सुविधाजनक होगा कि मैं आनन्दशंकरभाईकी टीकाका उत्तर देनेकी अपेक्षा अपने विचारोंको ही एक बार फिर लिख दूँ। मेरे विचार निम्नलिखित हैं।

१. मुझे मिलोंके वस्त्र-उद्योगसे द्वेष नहीं है, किन्तु मुझे उससे राग भी नहीं है।

२. अगर कपड़ेकी मिलें न हों तो भी हिन्दुस्तानकी जरूरतका कपड़ा चरखेसे सूत कातकर और हाथ-करघेसे बुनकर तैयार किया जा सकता है। इसकी पुष्टिके लिए आवश्यक प्रमाण मौजूद हैं।

३. मिलोंके कपड़ेके उद्योगको उत्तेजन देनेकी कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि उसको हानिका अन्देशा नहीं है।

४. हिन्दुस्तानके सात लाख गाँवोंके लिए खेतीके बाद एक ही घरेलू धन्धा है और वह है कातने-बुननेका।

५. खादीकी प्रथा नई है। उसे अभी स्थायी स्थान नहीं मिला है और उसे विदेशी कपड़े और मिलके कपड़ोंके मुकाबलेमें अपना मार्ग बनाना है।

६. आधुनिक प्रवृत्ति जनताके बहुत थोड़ेसे भागमें ही फैल पाई है। उसे भी अगर मिलके कपड़ोंका प्रयोग करनेकी छूट हो तो खादी कौन और कब पहनेगा? खादीका थोड़ा-बहुत प्रचार उसी हालतमें सम्भव है जब यह छोटा-सा समुदाय खादी पहनना अपना धर्म समझे और आग्रहपूर्वक उसे अंगीकार करे।

७. विदेशी कपड़ोंका बहिष्कार आवश्यक है। विदेशी कपड़ेसे देशी मिलोंको हानि पहुँचेगी। हिन्दुस्तान आज ही खादीमय हो जायेगा, ऐसा शुभ चिह्न मुझे दिखाई नहीं देता, इसलिए देशी मिलके कपड़ेके लिए पर्याप्त स्थान है। मिलके कपड़ेको खादीसे नहीं विदेशी कपड़ेसे खतरा है। अतः मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि मिलके वस्त्र-उद्योगको इस भयसे मुक्त करनेकी खातिर विदेशी कपड़ेपर इतना आयात-कर लगा दिया जाये जितनेसे देशी मिलके वस्त्र-उद्योगकी रक्षा हो सके।

८. चरखा और हथौड़ा भी यन्त्र हैं, मैं ऐसा मानता हूँ। मैंने सिद्धान्त रूपमें बाह्य यन्त्रको अनावश्यकताको माना है और आज भी मानता हूँ। किन्तु साथ ही मेरी मान्यता यह भी है कि बाह्य वस्तुओंके संग्रहके सम्बन्धमें संयम बरतना चाहिए। पश्चिमकी मान्यता इसके विरुद्ध है; अर्थात् उसके विचारानुसार यन्त्र जितने ज्यादा हों, उन्नति भी उतनी ही ज्यादा होगी। यन्त्रोंको स्थान तो दोनों सिद्धान्तवादी देते हैं। प्राचीन सभ्यता इन्हें अनिवार्य समझकर गौण स्थान देती है। किन्तु आधुनिक सभ्यता उनको वांछनीय समझकर उनका स्वागत करती है।

९. इतिहाससे यह प्रमाणित नहीं होता कि सस्ते और बढ़िया विदेशी कपड़े के सुलभ होनेसे खादीका नाश हुआ। अच्छी खादीसे विदेशी कपड़ा आज भी होड़ नहीं