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टिप्पणियाँ

कर सकता। ढाकाकी शबनम मलमल तो जगतसे लुप्त ही हो गई। विदेशी कपड़ा पहले-पहल जब यहाँ आया तब वह सस्ता भी नहीं था। इतिहास तो यह बताता है कि ईस्ट इंडिया कम्पनीने कातने और बुननेके उद्योगोंको जानबूझकर नष्ट किया और अनेक प्रकारके संरक्षणोंको प्राप्त करके हमें विदेशी कपड़ा पहननेके लिए विवश कर दिया। मैंने इस इतिहासको अपने अज्ञानके कारण गढ़ नहीं लिया है बल्कि मैने इसे रमेशचन्द्र दत्तके[१] ज्ञान-भंडारसे प्राप्त किया है। इन तथ्योंको स्वीकार करनेसे आजतक किसीने इनकार किया हो――यह मैंने नहीं देखा। यदि मेरी इस मान्यतामें कोई भूल हो तो मैं उसे अवश्य सुधार लूँगा।

१०. खादीकी शक्ति अतुलनीय है। उसे बढ़ानेके लिए खादीका मिलोंके कपड़ेसे होड़ करना जरूरी नहीं है। वह तो निरन्तर बढ़ ही रही है। जो व्यक्ति इस बातकी परीक्षा करना चाहे उसे चाहिए कि वह चार वर्ष पहले बननेवाली थोड़ी-सी खादीकी तुलना आज जो बारीक खादी मिलती है उससे करे। दो वर्षकी कैद भुगतनेके बाद जेलसे बाहर आनेपर खादीमें होनेवाला परिवर्तन मुझे आश्चर्यजनक लगा। आज खादी घर-घर तैयार होती है। उसके लिए बड़े-बड़े साधनोंकी भी जरूरत नहीं है और जबतक संसारमें सुरुचि और कलाप्रियता है तबतक खादीके प्रकारों और नमूनोंमें उन्नति होती ही रहेगी। मिलोंके कपड़े का मोह ही उसके मार्गमें बाधक है। इस मोहको दूर करना असहयोगी-सहयोगी, स्वराज्यवादी-अस्वराज्यवादी, स्त्री-पुरुष और ज्ञानी-अज्ञानी――सभीका धर्म है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २५-५-१९२४

६९. टिप्पणियाँ

मुसाफिरोंकी गन्दी आदतें

रेलके तीसरे दरर्जेमें सफर करनेवाले एक महाशय लिखते हैं कि मुसाफिरोंकी बुरी आदतोंके कारण रेलके तीसरे दरजेंकी मुसाफिरी असह्य हो गई है। इस दुःखसे बचनेके लिए एक छोटी-सी झाडू और एक ढकनदार थूकदानी साथ रखनी चाहिए। बुहारीसे डिब्बे को साफ करते रहें और यदि कोई अन्दर थूकने लगे तो उसके मुँहसे थूकदानी लगा दें। ऐसा करने से यह दुःख दूर हो सकता है।

इसमें कोई शक नहीं कि जिन्हें सफाई पसन्द है उन्हें तो ऐसी गन्दगी असह्य होती है। फिर भी तीसरे दर्जे में सफर किये बिना हमारा छुटकारा नहीं। जब मैं तीसरे दर्जेमें ही सफर करता था तब मैंने पत्रिकाएँ प्रकाशित की थीं और उन्हें यात्रियोंमें बँटवाता भी था।[२] फिर मेरे काममें परिवर्तन हो गया; और मेरा पत्रि-

 
  1. (१८४८-१९०९); भारतीय शासनके सदस्य, इकनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया सिन्स द एडवेन्ट ऑफ द ईस्ट इंडिया कम्पनीके लेखक; १८९९ को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके अध्यक्ष।
  2. ये १९१६-१७ में गुजरात में बांटी गई थीं; देखिए, खण्ड १३, पृष्ठ २८७।