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तो जो गाँव पाठशालाकी सहायता न करे हम वहाँ पाठशाला न रखें और यदि रखें तो उसे “लोकप्रिय” न कहें। नवीन हलचलके उत्साहके कारण हमें ऐसा तो लग सकता है कि जगह-जगह पाठशालाएँ कायम करना उचित है; और समाज रुपया दे तो हम उन्हें क्यों न चलाएँ। फिर भी म ऐसी प्रवृत्तिको निर्दोष नहीं मानता। इसीलिए कितनी ही ईसाई पाठशालाएँ उनके उद्देश्यको देखते हुए निरर्थक मालूम होती हैं। हम देखते हैं कि एक जगह एकत्र किये गये धनका उपयोग किसी दूरस्थ स्थानपर किया जाता है और इसी कारण उसका दुरुपयोग भी होता है। फिर इस प्रकार हम जनताके जिस वर्गकी ऐसी सेवा करते हैं वह अपंग हो जाता है। अत: हम जिस हदतक पूर्वोक्त सिद्धान्तके अनुसार चलेंगे, मैं मानता हूँ कि हम उसी हदतक ठीक रास्तेपर जायेंगे। इस न्यायके अनुसार स्वयं जिस गाँवके लोग अपने बाल-बच्चे न भेजें और रुपया भी न दें, उस गाँवमें पाठशाला खोलने में खर्च करना फिजूल हो सकता है।

लेकिन इसपर कोई यह कह उठेगा कि इस न्यायके अनुसार तो अन्त्यजोंके लिए एक भी पाठशाला नहीं खोली जा सकेगी, क्योंकि अभी तो अन्त्यजोंमें हमारा काम “लोकप्रिय” नहीं है। फिर कितने ही गाँवोंमें तो सारा हिन्दू-समाज इसका विरोधी है। यदि विरोधी नहीं तो उदासीन अवश्य है। इससे यही जाहिर होता है कि सिद्धान्त एकांगी नहीं होते। कितने ही सिद्धान्तोंका, जिनमें से कुछ तो परस्पर विरोधी भी होते हैं, एक साथ प्रयोग करना पड़ता है। अतः कहा जा सकता है कि सभी सिद्धान्तोंको दृष्टिमें रखकर किया हुआ काम अधिकसे-अधिक फलदायी साबित होता है।

अन्त्यजोंके तो हमने पंख ही काट डाले है। हमने उनकी भावनाओंको कुचल दिया है। अत: उनके बीच बहुत-सा काम तो हमे प्रायश्चित्त रूपमें ही करना पड़ेगा। उनके लिए मदरसे, कुएँ और मन्दिर हमें ही बनाने हैं। यह हमारे ऊपर उनका कर्ज है। फिर यह काम लोकप्रिय नहीं हो सकता। जिन्हें यह प्रिय हो वे उसके लिए रुपया दें और फलकी आशा न रखकर काम करें। हमें यहाँ “लोकप्रिय” का अर्थ दूसरी तरह ही करना चाहिए और ऐसी उलझनके समय ही धर्म-संकट उपस्थित होता है। ऐसे अवसरोंपर ही भिन्न-भिन्न सिद्धान्तोंका समन्वय करके कार्य करनेमें हमारी विवेक दृष्टिकी परीक्षा होती है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २५-५-१९२४