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७७. हिन्दू-मुस्लिम तनाव: कारण और उपचार[१]

हिन्दुओंका आरोप

पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदीकी मार्फत टाँगानीकामें रहनेवाले एक हिन्दू सज्जनने मुझे इस आशयका सन्देश भेजा था कि “गांधीजीसे कह दीजिएगा कि मुलतानमें मुसलमानोंने जो बर्बरता[२] की उसकी जिम्मेवारी आपपर ही है।”, मैंने पहले इस सन्देशका उल्लेख इसलिए किया क्योंकि तब मैं इस सबसे बड़े सवालपर लिखनेके लिए तैयार न था। परन्तु तबसे बहुत सारे पत्र मेरे पास आये हैं; जिनमें से कुछ तो विख्यात सज्जनों द्वारा लिखे हुए हैं। इनमें कहा गया है कि मोपलोंकी बर्बरताके लिए भी मैं ही जिम्मेवार हूँ। बल्कि सच तो यह है कि खिलाफत आन्दोलनके समयसे ऐसे जितने भी दंगे हुए जिनमें हिन्दुओंका नुकसान हुआ है या जिनसे उनका नुकसान होने की बात कही जाती है, उन सबके लिए मुझे ही जवाबदेह बताया गया है। इनकी दलील कुछ इस प्रकार की है: “आपने हिन्दुओंसे कहा कि खिलाफतके मामले में मुसलमानोंका साथ दो। इस मामलेको आपने अपना कहकर उठा लिया, इस कारण इसको इतना महत्व मिल गया जितना अन्यथा कदापि न मिलता। आपकी इस कार्रवाईसे ही मुसलमान जागे और संगठित हो गये। इससे मौलवियोंको ऐसी इज्जत मिली जैसी पहले कभी न मिली थी और अब चूंकि खिलाफतकी समस्या समाप्त हो गई है, इन जाग्रत मुसलमानोंने हिन्दुओंके खिलाफ एक तरहका जेहाद छेड़ दिया है।” मुझपर लगाये गये आरोपका आशय मैने समझ में आने लायक सीधी-सादी जुबानमें यहाँ रख दिया है। कितने ही पत्रोंमें भद्दी-भद्दी गालियाँ भी दी गई है।

यह तो हुई हिन्दुओंके इलजामकी बात।

मुसलमानोंके इलजाम

एक मुसलमान दोस्त लिखते हैं:

मुसलमान कौम बड़ी भोली-भाली और धर्मनिष्ठ कौम है। इसलिए वह इस भुलावेमें आ गई कि खिलाफत बहुत खतरेमें है और उसकी हिफाजत सिर्फ हिन्दुओं और मुसलमानोंकी मिली-जुली कोशिशोंसे ही हो सकती है। ये भोले-भाले लोग आपके ओजपूर्ण भाषणोंसे जोशमें आकर सरकारी मदरसों, अदालतों, कौंसिलोंका बहिष्कार करने में सबसे पहले आगे आये। अलीगढ़की बहुत ही मशहूर संस्था, जिसे सर सैयव अहमदने अपने जीवन-भरके परिश्रमसे खड़ा किया और जो अपने ढंगकी पहली संस्था थी, बरबाद हो गई। क्या

  1. यह लेख बादमें प्रचार-पुस्तिकाके रूपमें भी प्रकाशित हुआ था।
  2. सन् १९२३ के मार्च-अप्रैलमें अमृतसर, मुलतान तथा पंजावके दूसरे इलाकोंमें जबरदस्त साम्प्रदायिक दँगे हुए थे।