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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिए अगर किसी मुसलमानकी जान ले ले तो इसे जबरदस्ती नहीं तो और क्या कहेंगे? यह तो किसी मुसलमानको जबरन हिन्दू बनानेकी कोशिश करना ही हुआ। उसी तरह अगर मुसलमान हिन्दुओंको मसजिदके सामने गाने-बजानेसे जबरदस्ती रोकनेकी कोशिश करें तो यह भी जबरदस्ती नहीं तो और क्या है? खूबी तो इस बातमें है कि शोरगुलके बावजूद आदमी परमात्माकी प्रार्थनामें तल्लीन हो जाये। दूसरे लोग हमारी धार्मिक भावनाओंका खयाल रखें, इसके लिए अगर हम जोर-जबरदस्ती करेंगे तो भावी पीढ़ियाँ हमें अधर्मी और जंगली ही मानेंगी। फिर तीस करोड़ संख्यावाले राष्ट्रका सिर्फ एक लाख अंग्रेजोंको होशमें लानेके लिए हिंसा करनेपर मजबूर हो जाना शर्मकी बात है। उन लोगोंके हृदय-परिवर्तन करने या अगर आपकी मर्जी उन्हें इस देशसे निकाल देनेकी ही हो तो हमें इसके लिए शस्त्र बलकी नहीं, मनोबलकी जरूरत है। अगर हममें यह मनोबल नहीं होगा तो हम शस्त्रबल भी नहीं जुटा पायेंगे और जब हममें मनोबल आ जायेगा तो हम देखेंगे कि शस्त्रबलकी हमें जरूरत ही नहीं है।

इस तरह उपर्युक्त उद्देश्योंके लिए अहिंसा-धर्मको स्वीकार कर लेना हमारे राष्ट्रीय अस्तित्वके लिए सबसे अधिक स्वाभाविक और परम आवश्यक शर्त है। इसके जरिये हम अपने समाजके संयुक्त शरीरबलको अपेक्षाकृत अच्छे कामोंमें लगाना सीखेंगे। आज तो हम उसे भाई-भाईकी निरर्थक लड़ाईमें, जिसमें दोनों ही दल बिलकुल टूट जाते हैं, नष्ट किये जा रहे हैं। इसके अलावा, जबतक सम्पूर्ण राष्ट्रका समर्थन प्राप्त न हो, हर शस्त्र-विद्रोह पागलपन ही है और अगर राष्ट्रका पूरा-पूरा समर्थन प्राप्त हो तो असहयोग कार्यक्रमका कोई भी अंग एक बूंद खून बहाये बिना हमें अपने उद्देश्य तक पहुँचा सकता है।

मैं यह नहीं कहता कि चोरों, डाकुओं अथवा विदेशी आक्रमणकारियोंका मुकाबला करनेमें भी आप हिंसासे अलग रहें। परन्तु वहाँ भी हम हिंसासे काम लेने के अधिक योग्य तभी बन सकते है जब आत्मसंयम करना सीखें। जरा-जरा-सी बातपर पिस्तौल तान लेना शक्तिका नहीं, दुर्बलताका लक्षण है। आपसमें लड़ने-झगड़नेसे हिंसा करनेकी शक्ति नहीं बढ़ती; बल्कि वह हमें पौरुषहीनताकी ओर ले जाता है। मेरा अहिंसाका तरीका अपनानेसे शक्तिका ह्रास तो हो ही नहीं सकता; उलटे यदि राष्ट्र चाहे तो उससे खतरे के समय अनुशासित और संगठित हिंसाका प्रयोग करने में सफलता मिल सकती है।

सच्चे अहिंसावावी नहीं

जो लोग यह मान रहे हैं कि अहिंसाके प्रशिक्षणसे हम प्रमादी और अकर्मण्य बने जा रहे थे, वे अगर एक क्षण सोचकर देखें तो उन्हें मालूम हो जायेगा कि अहिंसाका जो एकमात्र सच्चा अर्थ है, उस अर्थ में हम कभी अहिंसापरायण रहे ही नहीं। हमने प्रत्यक्ष शारीरिक हिंसा नहीं की है, मगर हमारे दिलोंमें तो हिंसाकी आग सुलगती ही रही है। बाह्यरूपसे हमने जो कुछ किया, यदि उसका सामंजस्य हमने ईमानदारी के साथ मन और वचनसे भी अहिंसाका पालन करने में बैठाया होता तो आज हमको जो थकान महसूस हो रही है वह हरगिज न होती। अगर हम