पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/१७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४५
हिन्दू-मुस्लिम तनाव: कारण और उपचार

स्वयं अपने प्रति ईमानदारी बरतते रहते तो अबतक हमने अपने भीतर अनुपम मनोबल और संकल्पशक्तिका विकास कर लिया होता।

अहिंसाके बारे में फैली हुई इस खाम-खयालीका लम्बा-चौड़ा जिक्र मैने इसलिए किया कि मुझे यकीन है कि अगर हम उपर्युक्त दो उद्देश्योंको सफल बनानेके लिए ही अहिंसामें अपना विश्वास, अगर पहले कभी ऐसा विश्वास रहा हो तो, एक बार फिर जमा सकें तो दोनों सम्प्रदायोंके बीचका वर्तमान तनाव बहुत हद तक दूर हो जाये। कारण, मेरी रायमें, इस तनावको दूर करनेके उपायोंकी चर्चा करनेसे कोई लाभ केवल तभी हो सकता है जब आपसी सम्बन्धोंमें हमारा रुख अहिंसात्मक हो। दोनों सम्प्रदायोंके लोगोंका यह समान लक्ष्य होना चाहिए कि दोनोंमें से कोई भी पक्ष स्वेच्छाचारितासे काम नहीं लेगा, बल्कि जहाँ और जब कोई झगड़ा उठ खड़ा होगा, उसका निबटारा या तो आपसी पंचायतमें अथवा अदालतमें जाना चाहें तो वहाँ कराया जायेगा। जहाँतक साम्प्रदायिक मामलोंका सम्बन्ध है, अहिंसाका अर्थ इतना ही है। दूसरे शब्दोंमें कहें तो जिस तरह मामूली दुनियादारीकी बातोंमें हम एक-दूसरेके सिर फोड़नेपर आमादा नहीं हो जाते उसी तरह धार्मिक मामलोंमें भी बरतें। दोनों पक्षोंके बीच यही समझौता आवश्यक है और यह तत्काल हो जाना चाहिए। इतना हो जाये तो मुझे यकीन है कि बाकी तमाम बातें अपने-आप ठीक हो जायेंगी।

धौंग और दब्बू

जबतक यह प्राथमिक शर्त पूरी नहीं की जाती, तबतक आपसी गलतफहमीको दूर करके किसी सम्मानीय और स्थायी समझौतेपर विचार करने योग्य वातावरण नहीं बन सकता। मान लीजिए कि दोनों कौमोंने इस प्राथमिक शर्तको दोनोंके हितकी बात मानकर स्वीकार कर लिया तो फिर हम उन बातोंपर विचार करें जिनके कारण दोनोंके बीच हमेशा तनातनी बनी रहती है। मुझे रत्ती-भर भी शक नहीं कि ज्यादातर झगड़ोंमें हिन्दू लोग ही पिटते हैं; मेरे निजी अनुभवसे भी इस मतकी पुष्टि होती है कि मुसलमान आमतौरपर धींगाधींगी करनेवाला और हिन्दू दब्बू होता है। रेलगाड़ियोंमें, रास्तोंपर तथा ऐसे झगड़ोंका निपटारा करनेके जो मौके मुझे मिले हैं उनमें मैंने यही देखा है। क्या अपने दब्बूपनके लिए हिन्दू मुसलमानोंको दोष दे सकते हैं? जहाँ कायर होंगे वहाँ जालिम भी होंगे ही। कहते हैं, सहारनपुरमें मुसलमानोंने घर लूटे, तिजोरियाँ तोड़ डाली और एक जगह एक हिन्दू औरतको बेइज्जत भी किया। इसमें गलती किसकी थी? यह सच है कि मुसलमान अपने इस घृणित आचरणकी सफाई किसी तरह नहीं दे सकते। पर एक हिन्दूकी हैसियतसे मैं तो मुसलमानोंकी गुंडागर्दीके लिए उनपर गुस्सा होनेसे कहीं अधिक हिन्दुओंकी नामर्दीपर शर्मिन्दा होता हूँ। जिनके घर लूटे गये, वे अपने माल-असबाबकी हिफाजतमें जूझते हुए वहीं क्यों नहीं मर मिटे? जिन बहनोंकी बेइज्जती हुई उनके नाते-रिश्तेदार उस वक्त कहाँ गये थे? क्या उस समय उनका कुछ भी कर्तव्य नहीं था? मेरे अहिंसा-धर्ममें खतरेके वक्त अपने कुटुम्बियोंको अरक्षित छोड़कर भाग खड़े होने की गुंजाइश नहीं है। हिंसा और कायरतापूर्ण पलायनमें से यदि मुझे किसी एकको पसन्द करना पड़े

२४-१०