पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/१७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो मैं हिंसाको ही पसन्द करूँगा। जैसे मैं किसी अन्धे व्यक्तिके मनमें सुखद दृश्योंके देखनेका उत्साह नहीं भर सकता, उसी प्रकार किसी कायरको अहिंसा-धर्म भी नहीं सिखा सकता। अहिंसा वीरताको पराकाष्ठा है। यह मेरा निजी अनुभव है कि हिंसाकी तालीम पाये हुए लोगोंके बीच अहिंसाकी श्रेष्ठता साबित करने में मुझे कभी कोई कठिनाई नहीं हुई। पहले एक अरसे तक मेरे मनमें कायरताका निवास था और उस अवधिमें मनमें हिंसाके भाव उठा करते थे। लेकिन जैसे-जैसे मेरी कायरता दूर होने लगी, मैं अहिंसाकी भी कीमत समझने लगा। कर्तव्य-स्थलको खतरेसे भरा हुआ देखकर जो हिन्दू वहाँसे भाग खड़े हुए वे कुछ इसलिए नहीं भागे थे कि वे अहिंसा-परायण थे या वे मारने से डरते थे; वे इसलिए भागे कि वे मरने, यहाँतक कि किसी तरहकी चोट खाने को तैयार नहीं थे। खरगोश शिकारी कुत्तेसे डरकर भागता है सो अपने अहिंसक होनेकी वजहसे नहीं, वह बेचारा तो उसकी शक्ल देखकर ही घबरा जाता है और जान लेकर भाग खड़ा होता है। जो हिन्दू अपनी जान बचाकर भागे वे अगर हँसते हुए अपनी छाती खोलकर अपने स्थानपर खड़े रहते और वहीं मर-मिटते तो वे सच्चे अहिंसापरायण कहे जाते, सर्वत्र उनका यश और गौरव छाजाता, उनके धर्मकी प्रतिष्ठा बढ़ती और उनपर हमला करनेवाले मुसलमान उनके दोस्त बन जाते। अगर वे अपनी जगहपर खड़े रहकर दो-दो हाथ ही कर लेते तो इतना अच्छा तो नहीं फिर भी अच्छा ही होता। अगर हिन्दू यह चाहते हैं कि मुलसमान आततायी उनकी कद्र करें और मित्रवत् व्यवहार करें तो उन्हें बड़ेसे-बड़े खतरेका सामना करते हुए मर-मिटना सीखना चाहिए।

उपाय

लेकिन अखाड़े इसका उपाय नहीं हैं। वैसे मैं अखाड़ोंको बुरा नहीं समझता। बल्कि मैं तो शरीर बनानेके लिए उन्हें जरूरी मानता हूँ। पर उस हालतमें वे सबके लिए खुले होने चाहिए। किन्तु अगर अखाड़े हिन्दू-मुस्लिम झगड़े में आत्मरक्षाकी तैयारीके इरादेसे खोले जाते हैं तो उनसे काम नहीं चलनेका। मुसलमान भी ऐसा ही कर सकते हैं। ऐसी तैयारियोंसे चाहे वे छिपकर की जायें या खुले आम, शंका और चिढ़ पैदा होनेके अलावा और कुछ नहीं हो सकता। रोगका तत्काल शमन करने में ये असमर्थ हैं। यह तो समाजके इनेगिने विचारशील लोगोंका काम है कि पंच-फैसलेकी विधिको लोकप्रिय और अनिवार्य बनाकर ऐसे झगड़ोंको गैरमुमकिन बना दें।

बुजदिलीकी दवा शारीरिक प्रशिक्षण नहीं, बल्कि खतरोंको झेलनेकी आदत डालना है। जबतक मध्यमवर्गीय हिन्दू लोग, जो खुद ही बुजदिल होते हैं, अपने लड़के-बच्चोंको छुई-मुई बनाकर रखते रहेंगे और इस प्रकार उनमें भी अपनी बुजदिली भरते रहेंगे, तबतक खतरेसे दुम दबानेकी यह आदत और जोखिम सिरपर न लेनेकी ख्वाहिश बराबर बनी ही रहेगी। उन्हें हिम्मत बाँधकर अपने बच्चोंको अपने ही भरोसे रहनेका मौका देना चाहिए, जोखिममें पड़ने देना चाहिए; और यदि ऐसा करते हुए उन्हें प्राण गँवाना पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं। शरीरसे बिलकुल कमजोर आदमीका भी बहुत मजबूत दिल हो सकता है और बड़ा हट्टा-कट्टा जुलू भी अंग्रेज छोकरोंके