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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्थितिमें बदलेमें उनसे कुछ अपेक्षा करनेका सवाल ही नहीं उठता। अगर हम अपनी नामर्दीको छिपाने के लिए उनका इस्तेमाल करेंगे तो हम उनके दिलमें ऐसी आशाएँ पैदा करेंगे जिन्हें हम कभी पूरा नहीं कर पायेंगे और तब अगर हमें प्रतिशोधका शिकार बनना पड़ा तो वह उनके साथ किये गये हमारे अमानुषिक व्यवहारका उचित दण्ड होगा। यदि हिन्दुओंके दिलोंमें मेरे लिए कोई स्थान है तो मैं उनसे सविनय अनुरोध करूँगा कि वे मुसलमानोंके सम्भावित हमलेसे बचनेके लिए अछूतोंको ढाल न बनायें।

बढ़ता हुआ मनोमालिन्य

इस बढ़ते हुए तनावका दूसरा सबल कारण यह है कि हमारे अच्छेसे-अच्छे लोगोंके भीतर भी अविश्वासकी भावना बढ़ती जा रही है। मुझे पण्डित मदनमोहन मालवीयजीसे सावधान रहनेकी चेतावनी दी गई है। कहा जाता है कि वे अपने मनसूबे जाहिर नहीं होने देते, वे मुसलमानोंके दोस्त नहीं हैं; यह भी कहा जाता है कि मेरे प्रभावके प्रति वे ईर्ष्यालु हैं। जब मैं १९१५ में भारत लौटा तभीसे उन्हें बहुत करीबसे जानता हूँ। उनसे मेरा घनिष्ठ सम्पर्क रहा है। उन्हें मैं हिन्दू-संसारके श्रेष्ठ व्यक्तियोंमें से मानता हूँ। सनातनी होते हुए भी वे बड़े उदार विचार रखते हैं। वे मुसलमानोंके दुश्मन नहीं हैं। किसीके प्रति मनमें ईर्ष्या रखना उनके लिए असम्भव ही है। उनका हृदय इतना विशाल है कि उसमें शत्रुओंके लिए भी स्थान है। सत्ता प्राप्त करना उनका उद्देश्य रहा ही नहीं। आज जो शक्ति उन्हें प्राप्त है वह मातृ-भूमिकी दीर्घ और अखण्ड सेवाका फल है। ऐसी सेवाका दावा हममें से बहुत कम लोग कर सकते हैं। उनका और मेरा स्वभाव अलग-अलग है। लेकिन हम दोनोंमें सगे भाइयों-जैसा प्रेम है। हमारे बीच और तो और कोई खटास तक पैदा नहीं हुई। हमारे रास्ते अलग-अलग हैं। इसलिए हमारे बीच प्रतिस्पर्धाका सवाल ही नहीं उठता और इसलिए ईर्ष्याकी गुंजाइश भी नहीं है।

दूसरे सज्जन, जिनपर अविश्वास किया जाता है, लाला लाजपतराय हैं। मैंने तो लालाजीको एक बच्चेकी तरह खुले दिलवाला पाया है। उनका त्याग लगभग वेमिसाल है। मेरी उनसे हिन्दू-मुस्लिम समस्यापर एक बार नहीं, अनेक बार बातें हुई हैं। वे मुसलमानोंसे दुश्मनी नहीं रखते। लेकिन मैं यह स्वीकार करता हूँ कि वे यह नहीं मानते कि एकता तत्काल स्थापित हो सकेगी। वे मार्गदर्शनके लिए ईश्वरकी ओर देख रहे हैं। स्वयं शंकित रहते हुए भी वे हिन्दू-मुस्लिम एकतामें विश्वास रखते हैं; क्योंकि जैसा कि उन्होंने मुझसे कहा, वे स्वराज्यमें विश्वास रखते हैं। वे मानते हैं कि ऐसी एकताके बिना स्वराज्य स्थापित नहीं हो सकता। लेकिन वे यह नहीं जानते कि यह एकता किस तरह और कब होगी। मेरा समाधान उन्हें पसन्द है; परन्तु उन्हें इस बातमें शक है कि हिन्दू लोग उस समाधानमें (लालाजीके अनुसार) जो उदात्त भाव है उसका मर्म और मूल्य समझ सकेंगे या नहीं। मैं यहाँ इतना जरूर कह दूँ कि मैं अपने समाधानको कोई उदात्त समाधान न मानकर सर्वथा न्यायोचित और एकमात्र व्यावहारिक समाधान मानता हूँ।