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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हूँ। इनसे ज्यादा सच्चा आदमी मुझे अपनी जिन्दगीमें अभी नहीं मिला। जेलमें उनका चलन हम लोगोंके लिए ईर्ष्याकी वस्तु थी। उनकी सत्यपरायणताको दोषतक कहा जा सकता था। वे मुसलमान-विरोधी नहीं है। डा० चौइथरामको यद्यपि मैं इनसे भी पहलेसे जानता हूँ; पर मैं इन्हें उतनी अच्छी तरह नहीं जानता। जितना जानता हूँ, उतने से मैं उनके हिन्दू-मुस्लिम एकताके हामी होनेके अलावा और कुछ होनेकी कल्पना नहीं कर सकता। जिन लोगोंके खिलाफ चेतावनी दी गई है, मैंने उन सबके नाम नहीं गिनाये हैं। मुझे तो ऐसा ही भासता है कि यदि आज भी इन तमाम हिन्दुओं और समाजियोंको हिन्दू-मुस्लिम एकताके पक्षमें करना बाकी ही रह गया है तो फिर एकता शब्दका मेरे लिए कोई मतलब ही नहीं बचता; और ऐसी हालतमें मुझे अपनी इस जिन्दगीमें एकता स्थापित करने की आशा ही नहीं रखनी चाहिए।

बारी साहब[१]

पर इन भाइयों के प्रति अविश्वास ही सवालका सबसे खराब पहलू नहीं है। मुसलमानोंके विषयमें भी मुझे वैसा ही सचेत किया गया है, जैसा हिन्दुओंके विषयमें। यहाँ मैं सिर्फ तीन ही नाम लूँगा। मौलाना अब्दुल बारी साहब एक धर्मोन्मत हिन्दू-द्वेष्टाके रूप में पेश किये गये हैं। मुझे उनके कुछ लेख दिखाये गये, जिन्हें मैं नहीं समझ पाया। मैंने इस विषयमें उन्हें परेशान ही नहीं किया, क्योंकि वे तो खुदाके एक भोले-भाले बन्दे हैं। मैंने उनके अन्दर किसी तरहका छल-कपट नहीं देखा है। अकसर वे कोई बात बिना विचारे बोल जाते हैं, जिससे उनके अच्छेसे-अच्छे मित्र भी उलझनमें पड़ जाते हैं। पर वे क्षोभजनक बातें कह बैठनेमें जितनी जल्दी करते हैं, अपनी भूलकी माफी माँगनेको भी उतनी ही जल्दी तैयार रहते हैं। जिस वक्त जो बात वे बोलते हैं, उस वक्त उनका आशय भी सचमुच वही होता है। जिस तरह वे सच्चे दिलसे गुस्सा होते हैं उसी तरह वे सच्चे दिलसे माफी भी माँगते हैं। एक बार वे मौलाना मुहम्मद अलीपर बिना किसी उचित कारणके बिगड़ पड़े थे। मैं उस वक्त उनका मेहमान था। उनको लगा कि उन्होंने मुझे भी बहुत कुछ भला-बुरा कह डाला है। उस समय मौलाना मुहम्मद अली और मैं कानपुरको गाड़ी पकड़ने के लिए स्टेशन जाने की तैयारीमें थे। हमारे विदा हो जानेके बाद उन्हें लगा कि उन्होंने हमारे साथ बेजा बरताव किया है। मौलाना मुहम्मद अलीके प्रति तो उन्होंने बेशक अन्याय किया था; मेरे प्रति नहीं। पर उन्होंने तो कानपुरमें हम दोनोंके पास अपनी तरफसे कुछ लोगोंको भेजकर हम दोनोंसे माफी माँगी। इस बातसे वे मेरी नजरोंमें बहुत ऊँचे उठ गये। लेकिन, मैं कबूल करता हूँ कि मौलाना साहब किसी भी वक्त एक खतरनाक दोस्त साबित हो सकते हैं। पर मेरा मतलब यह है कि ऐसा होते हुए भी वे दोस्त ही रहेंगे। उनके साथ “खानेके और

दिखाने के और” यह बात नहीं। उनके मन में कोई दुराव-छिपाव नहीं होता। ऐसे दोस्तके हाथ में अपनी जिन्दगी सौंप देने में भी मुझे कोई हिचक नहीं होगी, क्योंकि मैं जानता हूँ कि वे कभी छिपकर वार नहीं करेंगे।:

  1. अब्दुल बारी।