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हिन्दू-मुस्लिम तनाव: कारण और उपचार

सम्बन्ध नहीं है। लेकिन अगर हम लाचार बनकर केवल पुलिसकी दयापर ही जिन्दा न रहना चाहते हों तो ऐसे मामलोंको भी हमें हाथमें लेना होगा और उन्हें सुलझाना होगा।

शुद्धि और तबलीग

परन्तु जो बात इस तनावको कायम रखे हुए है, वह है शुद्धि आन्दोलनका मौजूदा तरीका। धर्मान्तरणके लिए जिस अर्थमें ईसाई धर्ममें स्थान है और कुछ कम अंशोंमें इस्लाममें, मेरे विचारसे उस अर्थमें हिन्दू धर्ममें उसके लिए कोई स्थान नहीं है। मुझे तो लगता है कि अपने प्रचारकी योजना बनाने में आर्य समाजियोंने ईसाइयोंकी नकल की है। अपने धर्मके प्रति विश्वास पैदा करानेका यह आधुनिक तरीका मुझे नहीं जँचता। इससे हितके बजाय हानि ही हुई है। धर्मान्तरण विशुद्ध रूपसे हृदयकी और व्यक्ति-विशेष तथा उसके श्रष्टाके बीचकी चीज मानी जाती है; किन्तु आज इसका ऐसा पतन हुआ है कि इसके लिए मनुष्यकी स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियोंको उभारनेका तरीका अपनाया जाने लगा है। आर्य समाजी उपदेशकोंको जो मजा दूसरे धर्मोपर कीचड़ उछालने में आता है, वह मजा और किसी बातमें नहीं आता। एक हिन्दूके नाते मेरी सहज बुद्धि तो यही कहती है कि सभी धर्म न्यूनाधिक सच्चे हैं। सबकी उत्पत्ति एक ही ईश्वरसे है। फिर भी सब धर्म अपूर्ण हैं; क्योंकि वे हमें मनुष्यके द्वारा प्राप्त हुए हैं; और मनुष्य तो कभी पूर्ण नहीं होता। सच्चा शुद्धि-कार्य तो मैं इसे मानूंगा कि हर व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, अपने-अपने धर्ममें रहकर पूर्णत्व प्राप्त करने की कोशिश करे। ऐसी योजनामें चरित्र ही एकमात्र कसौटी होगा। एक धर्मको छोड़कर दूसरे धर्मको स्वीकार करनेसे अगर नैतिक उत्थान न होता हो तो ऐसे धर्म-परिवर्तनसे क्या लाभ? जब मेरे सहधर्मी लोग ही अपने आचरणमें रोजरोज ईश्वरके अस्तित्वको अस्वीकार कर रहे हों तब फिर ईश्वरकी सेवाके लिए, क्योंकि शुद्धि या तबलीगका मतलब यही मानना चाहिए, दूसरे धर्मके लोगोंको मैं अपने धर्मकी दीक्षा किस लिए दूँ? ‘रंगरेज पहले अपनी पगड़ी रंग’ वाली कहावत लौकिक मामलोंसे धार्मिक मामलोंपर कहीं अधिक लागू होती है। परन्तु ये मेरे निजी विचार हैं। अगर आर्य समाजियोंको लगता हो कि उनकी अन्तरात्मा उन्हें इस आन्दोलनके लिए प्रेरित कर रही है तो इसे चलानेका उन्हें पूरा हक है। यह उत्कट अन्तर्नाद समयकी मर्यादा या अनुभवके अंकुशको स्वीकार नहीं करता। यदि अन्तरात्माकी आवाजपर किसी आर्य समाजी या मुसलमानके अपने धर्मका प्रचार करनेके कारण ही हिन्दू-मुस्लिम एकता खतरे में पड़ जाती है तो निश्चय ही वह एकता सतही है। हम ऐसे आन्दोलनोंसे इतना क्यों घबरायें? लेकिन तब इन आन्दोलनोंको शुद्ध भावसे प्रेरित होना चाहिए। अगर मलकाना लोग फिरसे हिन्दू धर्म अंगीकार करना चाहें तो वे जब चाहे तब उन्हें ऐसा करने का पूरा-पूरा हक है। परन्तु अपने धर्मका प्रचार करनेके लिए दूसरे धर्मोकी निन्दा करनेकी प्रवृत्ति नहीं चलने दी जा सकती; क्योंकि यह सहिष्णुताको भावनाके नितान्त विपरीत है। इस ढंगके प्रचारका मुकाबला करनेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि खुले आम उसकी भर्त्सना की जाये। हरएक