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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आन्दोलन समादरणीय होनेका स्वांग रचता है; परन्तु जैसे ही उसकी पोल खुलती है वैसे ही उसके प्रति लोगोंकी आदर-भावना समाप्त हो जाती है और आन्दोलन निष्प्राण बन जाता है। सुना है, आर्य समाजी और मुसलमान दोनों सचमुच ही स्त्रियोंका अपहरण कर लेते हैं और तब उनके धर्मान्तरणकी चेष्टा करते हैं। मेरे सामने आगाखानी साहित्यका ढेर पड़ा हुआ है। उसे ध्यानसे पढ़नेकी फुरसत अभी मुझे नहीं मिल पाई है; किन्तु मुझसे कहा गया है कि सचमुच ही उसमें हिन्दू धर्मको बहुत विकृत रूपमें पेश किया गया है। उसमें महाविभव आगाखाँको हिन्दू अवतार बताया गया है। यही देखकर मैं समझ गया कि उसमें क्या-कुछ होगा। खुद महाविभव आगाखाँ इस साहित्यके बारे में क्या सोचते हैं, मुझे यह जाननेकी उत्सुकता है। कितने ही खोजे मेरे दोस्त हैं। मैं उन्हें यह साहित्य पढ़नेको आमंत्रित करता हूँ। एक सज्जनने मुझे बताया है कि आगाखानी सम्प्रदायके कुछ एजेंट अनपढ़ गरीब हिन्दुओंको पैसा उधार देते हैं; और बादमें कहते है कि अगर तुम इस्लाम कबूल कर लो तो तुमसे पैसा वापस न लिया जायेगा। इसे मैं अवैध प्रलोभन देकर धर्मान्तरण करना कहूँगा। परन्तु सबसे ज्यादा बुरा तरीका तो दिल्लीके एक साहबका[१] है। इन्होंने एक छोटी-सी पुस्तिका प्रकाशित की है। उसे मैं शुरूसे आखिर तक देख गया हूँ। उसमें इस्लामके उपदेशकोंको इस बातकी विस्तृत हिदायतें दी गई है कि वे किस तरह इस्लामके प्रचारका काम करें। शुरूआत इस ऊँचे असूलको लेकर की गई है कि इस्लाम तो सिर्फ अद्वैतका ही प्रचार कर रहा है। लेखकके अनुसार इस महासिद्धान्तका प्रचार हर मुसलमानको करना चाहिए ――चाहे उसका अपना चरित्र कैसा भी क्यों न हो। इसमें भेदियोंका एक छिपा महकमा खोलनेकी हिमायत की गई है। उस महकमेके लोगोंका काम गैर-मुस्लिम लोगोंके घरोंका भेद लेना होगा। इस उद्देश्यके लिए वेश्याओं, पेशेवर गायक-गायिकाओं, फकीरों, सरकारी नौकरों, वकीलों, डाक्टरों, कारीगरों आदिकी सेवाएं प्राप्त करनेकी बात कही गई है। अगर प्रचारका यह तरीका फैल गया तो इस्लामके पैगम्बरके महान् पैगामका अर्थ करनेवाले (उन्हें मैं सच्चा धर्म-प्रचारक न कह सकूँगा) ऐसे छद्मवेषीकी छिपी निगहबानीसे एक भी हिन्दू घर बच नहीं पायेगा। प्रतिष्ठित हिन्दुओंके मुँहसे मैंने यह सुना है कि यह प्रचार-पुस्तिका निजामके राज्य में बहुत पढ़ी जाती है और इसमें सुझाये गये तरीकोंके मुताबिक वहाँ काम भी खूब हो रहा है।

एक हिन्दूकी हैसियतसे मुझे इस बातपर अफसोस होता है कि उर्दूके एक नामी लेखक, जिनके पाठकोंकी संख्या बहुत बड़ी है, ऐसे तरीकोंको अपनानेकी जोरदार हिमायत कर रहे हैं जिनके नैतिक औचित्यमें सन्देह है। मेरे मुसलमान मित्रोंने मुझसे कहा है कि कोई भी प्रतिष्ठित मुसलमान उसमें बताये तरीकोंको पसन्द नहीं करता। लेकिन यहाँ सवाल तो यह है कि आम मुसलमानी जनताका एक बड़ा हिस्सा उन तरीकोंको मानता है और उनके मुताबिक चलता है या नहीं। पंजाबके अखबारोंका एक हिस्सा तो घोर अश्लीलतापर उतर आया है। कभी-कभी तो उनमें लिखे गये:

  1. आशय ख्वाजा हसन निजामीसे है।