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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

द्वारा होनेवाले गो-वधको न रोक सकनेसे वे पापके भागी नहीं बनते; किन्तु जब वे.गायकी रक्षाके निमित्त मुसलमानोंके साथ लड़ बैठते हैं, तब वे पाप अवश्य करते हैं और वह भी भयंकर।

बाजा

मसजिदोंके सामने बाजे बजाने और अब तो, मन्दिरोंमें आरती करनेके मसलेपर भी मैंने प्रार्थना-पूर्वक सोचा-विचारा है। गो-हत्या जिस तरह हिन्दुओंके लिए क्षोभका कारण है, उसी तरह बाजे और आरती मुसलमानोंके लिए हैं और जिस तरह हिन्दू लोग मुसलमानोंसे जबरदस्ती गो-हत्या बन्द नहीं करा सकते उसी तरह मुसलमान भी, तलवारके बलपर भी, हिन्दुओंको बाजा बजाने या आरती करनेसे नहीं रोक सकते। उन्हें हिन्दुओंकी भलमनसाहतपर भरोसा रखना चाहिए। एक हिन्दूकी हैसियतसे मैं तो हिन्दू भाइयोंको बेशक ऐसी सलाह दूँगा कि सौदा करनेकी भावना न रखकर वे मुसलमान भाइयोंकी भावनाओंका खयाल रखें और जहाँतक हो सके, वहाँतक उन्हें निबाह लेने की कोशिश करें। मैंने सुना है कि कितनी ही जगह हिन्दू जान-बूझकर मुसलमानोंको चिढ़ानेके लिए ठीक नमाजकी शुरूआतके ही वक्त आरती शुरू कर देते हैं। यह एक विवेकहीन और अमैत्रीपूर्ण कृत्य है। मित्रता तो यह मानकर ही चलती है कि मित्रकी भावनाओंका अधिकसे-अधिक खयाल रखा जायेगा। इसमें अलगसे सोचने-विचारनेकी जरूरत ही नहीं रहती। फिर भी मुसलमानोंको हिन्दुओंके बाजेको जोर-जबरदस्तीसे रोकने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। मारपीटकी धमकीसे अथवा सचमुच मारपीटके डरसे किसी कामको करना अपने आत्मसम्मान और धार्मिक विश्वासको तिलाँजलि दे देने जैसा है। पर जो आदमी स्वयं कभी धमकीसे नहीं डरता वह अपना व्यवहार भी अपने-आप ऐसा रखेगा जिससे दूसरोंको चिढ़नेका मौका कमसे-कम आये और सम्भव हुआ तो वह ऐसा मौका आने ही नहीं दे।

समझौता

ऊपर कही हुई बातोंको देखें तो स्पष्ट हो जायेगा कि हम अभी ऐसी अवस्था तक नहीं पहुँच पाये हैं जहाँ दोनों जातियोंम किसी किस्मके समझौतेकी सम्भावना भी हो। मेरे सामने यह बात बिलकुल साफ है कि समझौते में गो-वध तथा बाजेके बारेमें सौदेबाजीका सवाल ही नहीं उठता। यह काम तो दोनों पक्षोंको अपनी-अपनी राजीखुशीसे करना चाहिए। इसे किसी समझौतेका आधार नहीं बनाया जा सकता।

निस्सन्देह राजनैतिक मामलोंके लिए किसी न किसी तरहका समझौता या सहमति आवश्यक है, परन्तु मेरे विचारसे तो कारगर समझौता तभी हो सकता है जब दोनों जातियोंके बीच मैत्री भावना पुनः स्थापित हो जाये। क्या आज दोनों पक्ष सच्चे दिलसे यह मानने के लिए तैयार है कि दोनों कौमोंके विवादोंको, चाहे वे मजहबी हों या गैर-मजहबी, निबटानेके लिए शरीर-बलका सहारा नहीं लिया जायेगा? मुझे तो यकीन हो चुका है कि अगर अगुआ लोग न चाहें तो सर्वसाधारण जनता कदापि लड़ना नहीं चाहती। इसलिए अगर अगुआ लोग इस बातपर सहमत हो जायें कि दूसरे तमाम सभ्य और उन्नत देशोंकी तरह हम भी आपसी मारकाटको अधार्मिक