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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मयं

विश्वासका प्रतिफल विश्वास

मेरे लेखे तो आज देशके सामने एक ही मसला ऐसा है जिसका निपटारा तुरन्त किया जाना चाहिए और वह है हिन्दू-मुस्लिम समस्या। मैं श्री जिन्नाकी रायसे सहमत हूँ कि हिन्दू-मुस्लिम एकताका मतलब ही स्वराज्य है। जबतक इस अभागे देशमें हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच हार्दिक और स्थायी एकता कायम नहीं होती तबतक मुझे तो कोई रास्ता दिखाई नहीं देता। मैं यह भी मानता हूँ कि ऐसी एकता तत्काल स्थापित की जा सकती है; क्योंकि एक तो दोनों जातियोंके लिए यह अत्यन्त स्वाभाविक और आवश्यक है, दूसरे मुझे मानव-स्वभावमें विश्वास है। हो सकता है, ज्यादातर बातोंके लिए मुसलमान जवाबदेह हों। मैं बहुतसे ऐसे मुसलमानोंके भी निकट सम्पर्कमें आया हूँ जिन्हें “बुरा" कहा जा सकता है। फिर भी, मुझे ऐसा एक भी मौका याद नहीं आता, जिसमें मुझे उनके सम्पर्क में आनेके कारण पछताना पड़ा हो। मुसलमान लोग बहादुर हैं, उदार हैं और जिस क्षण उनका शक रफा हो जाता है, उसी क्षणसे वे विश्वास भी करने लगते हैं। हिन्दुओंको काँचके महल में बैठकर अपने मुसलमान पड़ौसियोंपर पत्थर फेंकनेका कोई अधिकार नहीं है। खुद हमने दलित जातियोंके प्रति क्या किया है, और आज भी कर रहे हैं इसकी ओर निगाह डालिए। अगर “काफिर” शब्द तिरस्कारका बोधक है तो “चाण्डाल” शब्दमें उससे कितनी अधिक कुत्सा है? दलित जातियोंके साथ हम जो व्यवहार कर रहे हैं उसकी मिसाल शायद दुनियाके किसी मजहबके इतिहासमें नहीं मिलती। अफसोस तो इस बातका है कि यह दुर्व्यवहार अब भी जारी है। वाइकोममें बिलकुल ही प्राथमिक मानवीय स्वत्वोंके लिए कैसा संघर्ष छिड़ा है।[१] ईश्वर प्रत्यक्ष रूपसे सजा नहीं देता। उसकी गति न्यारी है। कौन कह सकता है कि हमारे आजके तमाम दुःख इस घोरतम पापके ही फल नहीं हैं? इस्लामकी तवारीखमें यद्यपि कहीं- कहीं नैतिक ऊँचाईसे गिरावट भी दिखाई देती है, फिर भी अनेक स्थलोंपर बहुत शानदार बातें भी है। अपने उत्कर्षके दिनोंमें उसमें असहिष्णुता नहीं थी। सारी दुनिया उसे प्रशंसाकी दृष्टिसे देखती थी। जब पाश्चात्य संसार अन्धकारमें डूबा हुआ था, पूर्वी आकाशमें एक दीप्तिमान नक्षत्रका उदय हुआ, जिसने व्यथित संसारको प्रकाश दिया, सान्त्वना दी। इस्लाम कोई झूठा धर्म नहीं है। हिन्दू लोग आदरके साथ उसका अध्ययन करके देखें, फिर तो जिस तरह उसे मैं चाहता हूँ, उसी तरह वे भी जरूर चाहने लगेंगे। यदि इस देशमें उसमें विकृति और कट्टरता आ गई है तो हमें स्वीकार करना चाहिए कि उसके लिए हम भी कुछ कम जिम्मेदार नहीं है। अगर हिन्दू अपना घर संभाल लें तो मुझे तनिक भी सन्देह नहीं कि इस्लाममें भी उसकी उदार परम्पराओंके योग्य प्रतिक्रिया अवश्य दिखाई देगी। समस्याका समाधान हिन्दुओंके हाथमें है। हमें अपना दब्बूपन अर्थात् कायरता छोड़नी होगी। हमें अपने भीतर इतनी बहादुरी पैदा करनी चाहिए कि हम दूसरोंका विश्वास कर सकें। फिर तो कल्याण ही कल्याण है।

  1. देखिए खण्ड २३, पृष्ठ २९०-९१ ।