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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्राप्त नहीं हो सकता और अगर उनकी यह मान्यता सचमुच उनके निर्वाचकोंकी भावनाओंकी द्योतक हो तो मैं कमेटीको बेहिचक यह सलाह दूँगा कि वह इस कार्यक्रमपर पुनः विचार करने और अगले वर्ष उसपर मोहर पाने की आशासे उसमें आमूल परिवर्तन करनेतक का खतरा उठाये। निस्सन्देह इसे जनताका सच्चा समर्थन प्राप्त होना चाहिए। यदि ये दो शर्ते पूरी होती हों तो मुझे कोई सन्देह नहीं कि संविधानमें चाहे कुछ भी हो, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीका यह कर्त्तव्य है कि वह निन्दा और आलोचनाका खतरा उठाकर भी कांग्रेसकी नीति बदल दे और वर्ष के अन्ततक उपयोगी और ठोस काम करके दिखाये। गतिरोधसे तो हर हालतमें बचना ही है।

इतना सब लिख चुकने के बाद मेरा ध्यान इस बातकी ओर आकर्षित किया गया कि मेरे इन विचारोंके कारण स्वराज्यवादी लोग जनताकी नजरोंमें अपरिवर्तन-वादियोंसे कमजोर और हीन दिखाई देने लगे हैं। मेरे मनमें ऐसा कोई विचार तो सपनेमें भी नहीं आ सकता। यहाँ योग्यताका तो कोई सवाल ही नहीं उठता, बात प्रकृति-भेदकी है। मेरे लिखनेका एकमात्र उद्देश्य इतना ही है कि कांग्रेस कार्यकारिणीका काम कारगर ढंगसे चलता रहे। यह तभी हो सकता है, जब सभी कार्यकारिणी संस्थाओंका संचालन एक ही दलके लोग करें। यदि स्वराज्यवादियोंके विचार ज्यादा लोकप्रिय हों तो कार्यकारिणी संस्थाएँ सिर्फ उन्हींके हाथोंमें रहनी चाहिए। कांग्रेसको तो बराबर जो विचार लोकप्रिय हो, उसीका प्रतिनिधित्व करना चाहिए, चाहे वह विचार अच्छा हो या नहीं। जो लोग लोकमतके विपरीत विचार रखते हैं――जरूरी नहीं है कि ऐसे लोग कमजोर और हीन ही हों――उनका कर्त्तव्य यही कि वे बाहर रहकर ही जनमतको प्रभावित करनेकी कोशिश करें। यदि अपरिवर्तनवादी लोग परिवर्तनवादियोंको सिर्फ इस कारणसे कि वे उनसे भिन्न विचार रखते हैं, किसी भी तरह अपने से हीन समझेंगे तो वह अपने दायित्वके प्रति विश्वासघात होगा।

मेरा ध्यान इस बातकी ओर भी आकर्षित किया गया है कि कार्यकारिणी संस्थाओंपर किसी एक ही दलके नियन्त्रणकी बातकी मेरी हिमायत, दिल्लीमें पास किये गये और पुनः कोकनाडामें पुष्ट किये गये प्रस्तावकी भाषाके नहीं तो भावके विरुद्ध अवश्य है। मैंने दोनों प्रस्तावोंको ध्यानसे पढ़ा है। मेरे विचारसे दिल्लीके प्रस्तावमें और विशेषकर कोकनाडाके प्रस्तावमें कार्यकारिणी संस्थाओंके संयुक्त नियन्त्रणकी कोई बात नहीं कही गई है। कोकनाडा प्रस्तावमें सिर्फ दिल्लीके प्रस्तावकी पुष्टि ही नहीं की गई, बल्कि उसमें अहिंसात्मक असहयोगके सिद्धान्तपर जोर दिया गया है। अगर इन प्रस्तावोंका आशय समझनेमें मुझसे गलती भी हुई हो तो मेरी दलीलपर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह तो सिर्फ मेरी राय है; सदस्यगण उसे स्वीकार करें, चाहे न करें; ऐसा करने में मेरा उद्देश्य यही है कि काम फुर्तीसे हो। मुझे लगता है कि दोनों दल एक-दूसरेको कारगर ढंगसे सहायता तभी पहुँचा सकते हैं जब वे अपने-अपने क्षेत्रोंमें रहकर ही काम करें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २९-५-१९२४