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८५. टिप्पणियाँ

जवान बूढ़ा

पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि अब्बास साहब मेरे मीठे उलाहनेको[१] सुनकर चुप रहनेवाले व्यक्ति नहीं हैं। उन्हें गुजराती आती है। यह बात तो सभी गुजराती जानते हैं। अब उन्होंने मुझे गुजरातीमें पत्र लिखना शुरू किया है। मैं इसमें से कुछ अंश नमूने के तौरपर पाठकोंके सामने प्रस्तुत करता हूँ।[२]

मैंने उनकी इस गुजरातीको सुधारे बिना ही पाठकोंके सामने पेश किया है: मैं स्वयं बहुत-सी भूलें करता हूँ, इस बातसे पाठक अच्छी तरह परिचित है। “शिखर-निवासी”[३] मुझे बताते हैं कि मुझसे अभीतक भूलें होती हैं। मुझे कुछ भूलोंको देखकर शर्म आती है। लेकिन चूँकि मैं स्वयं भूलोंसे भरा हुआ हूँ इसलिए अब्बास साहबकी सदोष गुजराती मुझे उनकी निर्दोष अंग्रेजीसे कहीं अधिक प्रिय है। जिस तरह मैं अपनी भूलोंके बावजूद गुजराती लिखना छोड़नेवाला नहीं हूँ उसी तरह अब्बास साहबको भी भूलें सुधारनेकी इच्छा हो तो सुधारकर, नहीं तो वैसे ही लगातार गुजरातीमें ही लिखते रहकर अन्य गुजरातियोंके दिलोंमें स्वभाषाके प्रति अभिमान जाग्रत करना चाहिए। उनका ‘पुष्ठक’[४] शब्द तो मुझे अत्यन्त मधुर लगता है। किन्तु यदि वे भविष्यमें अन्य गुजराती पुस्तकें न पढ़ें तो भी हमारी इच्छा है कि वे कमसे-कम ‘नवजीवन’ तो अवश्य पढ़ते रहें। ‘शिखर निवासी’ ने मेरी जिन भूलोंकी ओर संकेत किया है और जिनके लिए मैं शर्मिन्दा हूँ, मैं भविष्यमें जल्दी ही ‘नवजीवन’ में उन भूलोंकी एक फेहरिस्त प्रकाशित करनेवाला हूँ। इससे अब्बास साहब अपनी भूलोंपर शर्मिन्दा नहीं होंगे तथा मेरी भूलोंको सुधारके 'नवजीवन' पढ़ेंगे तथा अपेक्षाकृत अच्छी गुजराती लिखेंगे। अब्बास साहबकी सेवामें निरत लोगोंको उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि वे उनसे 'नवजीवन' पढ़वाकर सुनें।

अब्बास साहबने एक और ऐसी बात लिखी है जो गुजरातियों और हिन्दुस्तानके सभी लोगोंको प्रोत्साहन देगी। वे लिखते है: “भाई साहब, आपने तो मुझे एक ‘बूढ़े’ के रूपमें सारे हिन्दुस्तानमें मशहूर कर दिया, लेकिन मैं तो अपने-आपको जवान समझता हूँ।” यदि हम इस बूढ़ेको दर्पण भी दे दें तो भी वह अपने-आपको बूढ़ा न मानेगा, क्योंकि उसका दिल जवान है। उनके साथ स्थान-स्थानपर भटकनेवाले लोग मुझे बताते हैं कि वे स्वयं थक जाते हैं, लेकिन अब्बास साहब कभी नहीं थकते। सच है, जो जवानोंसे भी अधिक काम करता है वह बूढ़ा होते हुए भी

  1. गुजरातीमें पत्र न लिखनेके सम्बन्धमें।
  2. यहाँ नहीं दिये गये हैं।
  3. देखिए खण्ड २३, पृष्ठ ५२७-३०।
  4. पुस्तक