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काठियावाड़ियोंके प्रति अन्याय

नहीं कर लेता तबतक बाट जोहनी पड़ेगी। उनमें जबतक सत्याग्रह करनेका उत्साह है तबतक निराश होनेकी कोई जरूरत नहीं है। यदि उम्मीद पूरी होनेमें देर लगती है तो उन्हें समझना चाहिए कि उनका सत्याग्रह कमजोर है। उनमें शक्ति हो तो “व्यक्तिकर” के अलावा ऐसे बहुतसे कानून हैं जिन्हें चाहें तो वे विनयपूर्वक भंग कर सकते हैं। जिनसे भूमिपर स्वामित्वसे सम्बन्धित, आत्मसम्मानकी रक्षासे सम्बन्धित तथा मताधिकारसे सम्बन्धित अधिकार छीन लिये जायें क्या उनके लिए मनुष्यकृत कानून बन्धनकारी हो सकते हैं? जहाँ राज्यतन्त्रका उद्देश्य समाज अथवा उसके किसी अंगको दबाना हो वहाँ उस तन्त्रके मानवकृत कानून क्या उस दबाये हुए समाज अथवा उस अंगके लिए बन्धनकारी हो सकते हैं? जहाँ कानूनका उद्देश्य उस समाजके विकासकी गतिको अवरुद्ध करना हो वहाँ उस समाजका कर्तव्य हो जाता है कि वह उस मानवकृत कानूनका उल्लंघन करे। इसलिए कोई भी बाह्यशक्ति केनियावासियोंको नहीं रोक सकती। वे जब चाहे तब बन्धन-मुक्त हो सकते हैं। लेकिन मुझे विश्वास है कि इस लेखको पढ़कर कोई भी केनियावासी बिना सोचे-समझे कोई कदम नहीं उठायेगा। सविनय अवज्ञाका अधिकार हरएकको नहीं होता। जो कानूनका पालन स्वेच्छासे करना जानते हैं केवल वे लोग ही स्वेच्छासे, और ऐसा प्रसंग उपस्थित होनेपर सविनय अवज्ञा भी कर सकते हैं। यह शस्त्र अनजानके हाथोंमें पड़कर उसीके लिए हानिकर हो जा सकता है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १-६-१९२४

८६. काठियावाड़ियोंके प्रति अन्याय

एक मित्रने मुझे मीठा उलाहना दिया है और कहा है कि मैं आजकल काठियावाड़ियोंके प्रति अन्याय कर रहा हूँ। मैं उनका परिचय बातूनी लोगोंके रूपमें दे रहा हूँ।[१] इन मित्रके विचारसे मेरे पत्रसे ऐसी ध्वनि निकलती है कि उनमें काम करनेवाला तो कोई भी नहीं है। इसके अलावा इनका कहना यह भी है कि मेरा अनुकरण करके अन्य लोग भी काठियावाड़ियोंके प्रति ऐसी ही राय बना लेते हैं और ऐसे ही विशेषणोंका प्रयोग करके उनकी भर्त्सना करते हैं। ये भाई आगे कहते है कि अन्तमें इसका परिणाम यह होगा कि हम काठियावाड़ी भी अपने सम्बन्धमें यह मानने लगेंगे कि हम ऐसे ही हैं और इस समय हममें जो लोग थोड़ा-बहुत काम करते हैं वे भी निठल्ले बन जायेंगे।

मेरी यह टीका सभी काठियावाड़ियोंपर लागू नहीं है। मैंने तो यह मात्र राज-नीतिज्ञोंके सम्बन्धमें कहा था और वे भी सबके सब वाचाल है, मेरे कहनेका यह अभिप्राय भी नहीं है।:

  1. देखिए “काठियावाड़ क्या करे?”, १८-५-१९२४।