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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
 

था जब परिस्थितियोंका प्रवाह मेरे अनुकूल था। अगर हमें भारतवर्षकी सेवा करनी है तो हमें अपने साधनको साधकोंसे ऊँचा समझना चाहिए। साधक तो आते-जाते रहते हैं। लेकिन उद्देश्य तो बड़ेसे-बड़े व्यक्तिके चले जाने के बाद भी कायम रहता है।

आर्य समाजी विरोध

आगराके आर्य समाजकी तरफसे मुझे निम्नलिखित तार मिला है :

आर्यसमाज, ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्दजी, 'सत्यार्थ प्रकाश' और शुद्धि-आन्दोलनके बारेमें आपने जो कड़े शब्द कहे हैं[१] आगरा उनके प्रति अपना विरोध प्रकट करता है। उसे विश्वास है कि आर्य-समाजके सिद्धान्तोंका पूरा परिचय न होनेके कारण आपने अनजाने में वे सब बातें कही है। वह आपसे सादर प्रार्थना करता है कि आप अपने विचारोंपर फिरसे गौर करें और उनसे जो उद्वेग उत्पन्न होनेकी सम्भावना है, उसे दूर करें।

मैं इस तारको इसलिए प्रकाशित कर रहा हूँ कि मुझे विश्वास है कि आगरा समाजका मत बहुत हदतक आर्य समाजका ही मत है। उसके उत्तरमें मैं इतना ही कह सकता हूँ कि मैंने समाज या ऋषि दयानन्द या स्वामी श्रद्धानन्दजीके विषयमें एक भी शब्द गहरा विचार किये बिना नहीं लिखा है। मैं अपनी रायको आसानीसे दबा कर भी रख सकता था। लेकिन जब कि उसका प्रस्तुत प्रकरणसे सम्बन्ध है तब सत्यको देखते हुए मैं ऐसा नहीं कर सका। हिन्दू-मुस्लिम-वैमनस्यका दानव हमारे सामने खड़ा है। उसके नाशकी मुल्कको सख्त जरूरत है। इसे तथ्योंको दबाकर या उनकी ओरसे आँखें मूंदकर नहीं किया जा सकता। ऐसे मौकोंपर जो बात सच्ची दिखाई दे उसे कहना जरूरी हो जाता है--फिर वह चाहे कितनी ही कड़वी क्यों न हो। लेकिन मैं इस बातका दावा नहीं करता कि मुझसे भूल नहीं हो सकती। अभीतक मुझे ऐसी कोई बात नहीं दिखाई दी है जिससे मैं अपने विचार बदल मैं यह भी नहीं कह सकता कि इस विषयका मुझे कोई ज्ञान नहीं है। मैंने 'सत्यार्थ प्रकाश' को जरूर पढ़ा है। स्वामी श्रद्धानन्दजीसे मेरा गहरा परिचय है। इसलिए मैंने वे बातें सोच-समझकर ही लिखी हैं। अगर कोई आर्य समाजी मुझे यह समझा दे कि किसी भी बातमें मुझसे गलती हुई है तो मैं खुशीके साथ अपनी गलतीको कबूल करूँगा, उसके लिए माफी मागूंगा और अपने तमाम गलत बयान वापस ले लूंगा।

दण्ड या पुरस्कार?

थोरोने कहा है कि स्वेच्छाचारी शासनके अधीन खुशहाली अपराध है और गरीबी गुण । दूसरे शब्दों में, ऐसी सरकारका कोप-भाजन बनना खुशीकी बात है। ऐसी सरकारको कृपादृष्टिके प्रति सतर्क रहना चाहिए। इस तरह विचार करें तो मद्राससे प्रकाशित स्वराज्य' को जो दण्ड दिया गया है, उसे उसकी सार्वजनिक सेवाओंके लिए पुरस्कार

  1. १. तात्पर्य गांधीजीके " हिन्दू-मुस्लिम तनाव : कारण और उपचार ", २९-५-१९२४ लेखसे है।