पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
टिप्पणियाँ

दिया, पर हाँ, मैं इतना जरूर कह सकता हूँ कि ‘क्रॉनिकल' के लेखकको अहिंसात्मक असहयोगके अपने दावेके अनुरूप भाषाका प्रयोग करना चाहिए था और मानपत्रका विरोध करनेवालोंकी मंशापर शक नहीं करना चाहिए था। अवश्य ही पत्र-लेखकने जिसका हवाला दिया है वह लेख मैंने नहीं पढ़ा है। आमतौरपर मैं अपने बारेमें भारतीय समाचारपत्रोंमें निकलनेवाले लेख इत्यादि पढ़ता ही नहीं, चाहे उनमें मेरी प्रशंसा की गई हो। प्रशंसाकी मुझे दरकार नहीं है क्योंकि बिना किसी भी बाहरी सहायताके मेरे मनमें पहलेसे ही काफी अहम् भरा पड़ा है और अपनी निन्दा इस ख्यालसे नहीं पढ़ता कि कहीं मेरे भीतरका असुर सौम्य भावनाओंपर हावी होकर मेरी अहिंसाको न धर दबोचे। पूरा लेख पढ़ने के बाद मेरे इस कथनमें तदनुसार संशोधन किया जा सकता है। फिर भी, मेरा अपना अनुमान यह है कि उक्त बातें श्री जे० बी० पेटिट और कानजी द्वारकादासको नजरमें रखकर कही गई हैं। मैं इन दोनोंसे भली-भांति परिचित हूँ। हम लोगोंके आपसी सम्बन्ध आज भी उतने ही मैत्रीपूर्ण हैं, जितने कि असहयोगके प्रारम्भसे पहले थे। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि इन दोनों में से किसीके भी दिल में मेरे प्रति किसी प्रकारकी कटुता हो सकती है। वे साफ-साफ कहते हैं कि मेरे तरीके उन्हें पसन्द नहीं हैं। कमसे-कम वे तो विरोध करने के लिए विरोध नहीं करेंगे। जिनकी राय मानपत्र देने के पक्षमें थी उनसे मैंने यह सुना है कि उस अवसरपर श्री पेटिटने इतने संयमित ढंगसे अपनी बात कही कि उनके स्वभावको देखते हुए वह एक आश्चर्यजनक चीज ही थी। मुझे मालूम है कि श्री पेटिट चाहे जब आवेशमें आकर बोल सकते हैं लेकिन प्रस्तुत मामलेमें उन्हें यह अहसास रहा कि उन्हें एक मित्रके खिलाफ बोलनेका दुखद कर्तव्य निभाना है। निगमके एक काफी पुराने सदस्यकी हैसियतसे उन्हें लगा कि निगम एक ऐसे व्यक्तिको मानपत्र देकर अपनी परम्पराओंके विरुद्ध आचरण करेगा जिसके सौजन्यको उसकी (पेटिटके तई) घृणित राजनीतिसे अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। सर्वश्री पेटिट और कानजी हृदयसे ऐसा मानते थे कि बम्बई नगर निगम एक गलत काम कर रहा है। इसलिए मेरी विनम्र सम्मतिमें उनका विरोध प्रकट करना उचित ही था। बेशक, आजकल हमारे देशके सार्वजनिक जीवनमें एक दूसरेके इरादोंपर जरूरतसे ज्यादा शंका की जाती है। (सहयोगियोंकी तो बात छोड़िए) स्वराज्यवादियोंमें भी कोई ऐसा नहीं है जिसके इरादोंपर अपरिवर्तनवादी लोग कोई शक जाहिर न करें और स्वराज्यवादी लोग भी अपरिवर्तनवादियोंके साथ ऐसा ही सलूक करते हैं। और उदार दलके लोगोंपर तो दोनों ही ऐसा शक करते है। समझमें नहीं आता कि जिन्हें पहले ईमानदार माना जाता था वे ही अब एकाएक राजनीतिक विचारों के परिवर्तनके कारण बेईमान कैसे हो गये। चूंकि असहयोगियोंके विरोधियोंने नहीं, बल्कि असहयोगियोंने अपनी विचार-धारा बदली है, इसलिए उनको खास सावधानी रखनेकी जरूरत है, अपने विपक्षियोंसे कहीं ज्यादा। यदि दोनोंमें मतभेद है तो इसमें विपक्षियोंका

१. बम्बईके दानशील पारसी समाज-सेवी।

२. होमरूल लीगके प्रमुख सदस्थ और गांधीजी के मित्र।