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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अनुसार ‘घुड़दौड़के घोड़ोंको हलमें जोतना।’ इस कथनसे इतना ही जाहिर होता है कि लेखक यह भी नहीं जानता कि वे चरखेसे जितना कुछ कर दिखानेकी अपेक्षा रखते हैं, खुद चरखेका दावा उससे बहुत घटकर है। किसीने कभी नहीं कहा कि चरखे अर्थात् हाथकी कताईसे किसी समूचे मध्यवर्गीय कुटुम्बका भरण-पोषण हो सकता है। यह दावा भी नहीं किया जाता कि केवल हाथकी कताई किसी गरीब-से-गरीब कुटुम्बकी गुजर-बसरके लिए काफी है। किन्तु यह जरूर कहा गया है कि वह उन अनेक भूखसे मरते पुरुषों और स्त्रियोंका काम अवश्य चला सकता है और चला भी रहा है, जो आजतक दो पैसे रोजकी कमाईसे सन्तुष्ट रहे हैं; और हमारा उसकी क्षमताके बारेमें यह भी कहना है कि वह लाखों किसानोंकी कमाईमें काफी हदतक वृद्धि कर पाता है। मध्यवर्गवालों से चरखा नित्य चलानेको इसलिए कहा गया है कि उसके दैनिक अभ्याससे उन्हें एक प्रशिक्षण मिलेगा, चरखेका वातावरण बनेगा तथा जो लोग जीविकाके लिए कातते हैं उन्हें अधिक मजदूरी देना सम्भव हो जायेगा। अन्तिम बात यह है कि मध्यवर्गके लोग बुनाई करके जीवन-निर्वाह अवश्य ही कर सकते हैं और हजारों बुनकर आज ऐसा कर भी रहे हैं। किसी मध्यवर्गीय कुटुम्बके लिए प्रतिदिन दोसे तीन रुपयेतक कमा लेना कोई मामूली बात नहीं है। “अन्य सब कामों" से क्या मतलब है, यह मैं नहीं समझा। यदि “अन्य सब कामों" का मतलब अन्य सब सार्वजनिक कामोंसे है तो मैं चाहता हूँ कि ये सारे काम फिलहाल बन्द कर दिये जायें। जिस प्रकारके संगठन द्वारा की गई स्वराज्य सम्बन्धी माँगका ठुकराया जाना असम्भव हो, वैसा संगठन खड़ा करनेके लिए आज ठीक इसीकी जरूरत है। उस हालतमें वह ‘घुड़दौड़ के घोड़ोंको हलमें जोतना' नहीं होगा; वह होगा और सबको घुड़दौड़के घोड़ोंके स्तरपर लाना। जब जहाज जल रहा होता है, तब उसका कप्तान ही आग बुझाने का पम्प सँभालने के लिए सबसे पहले आगे आता है और बादमें बाकी सभी लोगोंको उस जीवन-रक्षक यन्त्रपर जुटा लेता है। उस जलते हुए जहाजके हश्रकी कल्पना कीजिए, जिसका कप्तान चैनसे बैठा हुआ नाविकों एवं अन्य लोगोंसे आशा करता हो कि वे अपनी अक्लसे काम लेकर आग बुझाने में जुट जायेंगे।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, ८-५-१९२४