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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उसके बिना राजाको जनताकी रायका अन्दाज नहीं लग सकता। प्रजाको राजाकी नुक्ताचीनी करने और उसे खरी-खोटी सुनानेका हक है और राजाको ऐसा करनेवालोंको दण्ड देनेका हक है। रामचन्द्र-जैसा राजा हो तो अपनेको गालियाँ देनेवालेको कभी दण्ड न दे। उन्होंने तुच्छ धोबीतक को दण्ड नहीं दिया। उलटे उन्होंने सीता-जैसे अमूल्य स्त्री-रत्नको तत्काल त्याग देने में तनिक भी आगा-पीछा नहीं किया। और ऐसे संकोचहीन रामको आज मुझ-जैसे असंख्य हिन्दू पूजते हैं। प्रजाकी स्तुतिसे राजाओंका पतन हुआ है। यदि वे प्रजाको गालियाँ सुनने लगें तो उनकी उन्नति अवश्य हो।

गालियाँ देने का हक पाकर भी गालियाँ न देना सत्याग्रहीका धर्म है। मैं चाहता हूँ कि सोनगढ़में इस धर्मका पालन पूरी-पूरी तरह किया जाये।

परिषद्में काठियावाड़ी क्या-क्या कर सकते हैं, हम इस सम्बन्धमें अगले सप्ताह विचार करेंगे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ११-५-१९२४

१५. आगामी परिषद्

बोरसदमें होनेवाली (गुजरात प्रान्तीय) परिषद् बहुत महत्त्वपूर्ण है। १९२० ईसवीमें गुजरातकी प्रान्तीय परिषद्ने कांग्रेसका काम आसान कर दिया था। वैसा ही अवसर गुजरातको फिर प्राप्त हुआ है।

ऐसे सुअवसरपर मैं उपस्थित न हो सकूँगा, यह मेरे लिए दुःखकी बात है। मुझे आशा थी कि मैं खुद जाकर बोरसदके लोगोंको उनकी महान् विजयपर बधाई दूँगा। परन्तु सब भाई-बहन मेरी शारीरिक स्थितिका विचार करके मुझे क्षमा कर ही देंगे, ऐसा भरोसा है। मैं इस मासके अन्ततक आश्रम पहुँच जाना चाहता हूँ। परन्तु मेरी समझमें दौरेपर निकलने लायक ताकत आने में अभी वक्त लगेगा। फिलहाल मेरा शरीर ऐसा नहीं है कि वह यात्राओं, जुलूसों और शोरगुलको बरदाश्त कर सके। मुझे अपना आश्रम पहुँच जाना आवश्यक मालूम होता है। फिर भी कोई यह न समझे कि मैं गुजरातमें आ गया हूँ। फिलहाल तो मैं अहमदाबादमें भी कहीं आ-जा न सकूँगा। जिस प्रकार मैं जुहूमें हवा-परिवर्तनकी दृष्टि से रुका हुआ हूँ और

१.१३ मईको काका कालेलकरकी अध्यक्षतामें होनेवाली सातवीं गुजरात राजनीतिक परिषद्।

२. चौथी गुजरात राजनीतिक परिषद्ने अगस्त, १९२० में अहमदाबादमें असहयोगका प्रस्ताव स्वीकार किया था, पयपि विरोधी पक्षका कहना था कि मुख्य संस्था, कांग्रेससे आगे बढ़कर प्रान्तीय परिषद् ऐसा प्रस्ताव स्वीकृत नहीं कर सकती। कांग्रेसने असहयोगका प्रस्ताव सितम्बर, १९२० में कलकत्ता अधिवेशनमें स्वीकृत किया था।

३. देखिए खण्ड २३, पृष्ठ ४०७-४०९।

४. गांधीजी २९ मई, १९२४ को साबरमती आश्रम पहुँच गये थे।