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आगामी परिषद्

कहीं जाता-आता नहीं हूँ, उसी प्रकार मैं आश्रममें भी, बना तो तीन मास, अर्थात् अगस्तके अन्ततक चुप पड़ा रहना चाहता हूँ।

अब्बास साहब दिनपर-दिन जवान ही होते जा रहे हैं। उनका उत्साह बढ़ता जाता है। वल्लभभाईकी और गुजरातकी नाक कटवा देना उन्हें सहन नहीं है। उनके पास कार्य-कुशल चेले हैं। उन्हें उनके ऊपर अभिमान है और मुझे तो हुक्म ही दे रहे हैं ―― “आप अभी गुजरातमें न आयें। आपकी झोली बहुत बड़ी है। हमारे लिए उसे पूरा भर देना लाजिमी है। यदि आप यह गरूर रखते हों कि आप ही रुपये जुटा सकते है तो हम उसे चूर कर देंगे। दूसरे लोग भले ही यह मानते रहें कि आपके बिना काम न चलेगा, अकेले आप ही सत्याग्रहका संचालन कर सकते है और छोटी-बड़ी सब बातोंमें आपकी सलाह लेना जरूरी है; परन्तु हम गुजराती ऐसा नहीं मानते। हमने आपके बिना भी आपसे अच्छा सत्याग्रह करके दिखा दिया है। खुद आप ही यह बात कबूल करते हैं। आपके बिना हम रुपया एकत्र कर सकते हैं; चरखेका प्रचार कर सकते हैं, यह बात भी आपको कबूल करनी होगी।" पाठक यह न समझे कि हूबहू ये ही शब्द उनके पत्रमें हैं। उनका पत्र तो है अंग्रेजीमें। वे खुद गुजराती होनेकी डींगें तो खूब हाँकते हैं, परन्तु गुजराती मुझसे भी खराब लिखते हैं ―― इतना मैं भी कह सकता हूँ। परन्तु अब्बास साहब ठहरे दुधारू गाय। अतः उनकी गुजरातीकी टीका-टिप्पणी कौन कर सकता है? और जो अंग्रेजीमें लिखता है उसकी गुजरातीकी टीका-टिप्पणी किस तरह की जा सकती है? मैंने उनके अंग्रेजी पत्रका भावार्थ पाठकों के सम्मुख रखा है। यदि यह भावार्थ सही न हो तो जो भावार्थ वे स्वयं भेजेंगे उसे मैं ‘नवजीवन’ में प्रकाशित करके उनसे माफी माँगने के लिए तैयार हूँ।

परन्तु इतनी बात तो तय है कि यदि अपनी तन्दुरुस्तीके खयालसे नहीं तो अब्बास साहबकी प्रतिष्ठाकी खातिर, जबतक झोली पूरी न भर जाये, तबतक मुझे आश्रममें ही चुपचाप पड़े रहना पड़ेगा और तबतक तमाम गुजरातियोंको यह मानना होगा कि मैं अभी गुजरात आया ही नहीं हूँ। बोरसदके लोगोंको तो मेरी जरूरत हो नहीं सकती। यदि मैं वहाँ जा सका तो वह अपने स्वार्थके लिए ही होगा। अब हमारी परिषदें बिलकुल अमली होनी चाहिए। जहाँ कामसे काम हो वहाँ जलसों आदिकी गुंजाइश नहीं होती। हर परिषद् में बड़े-बड़े लोगोंको एकत्र करनेका जमाना गया। इसमें उनका वक्त जाता है, फिजूल रेल किराया लगता है और स्थानीय लोगों- का ध्यान कामकाजसे खिचकर स्वागत-सत्कारकी ओर जाता है; तमाशबीनोंका भब्बड़ होता है सो अलग। किसी समय यह सोचना ठीक था कि बड़े-बड़े लोगोंके आनेसे ऐसे लोग भी आकर हमारे काममें दिलचस्पी लेंगे जो अबतक नहीं आते हैं, परन्तु आज वह बात नहीं रही। हमें जनताके उस भागका ध्यान उसकी सेवा करके खींचना चाहिए। बोरसदके सत्याग्रहने जितने लोगोंको आकर्षित किया है उतने लोगोंको तो सारे हिन्दुस्तानके तमाम नेता आते तो भी आकर्षित न कर पाते।

असल बात यह है कि जितनोंको हम खींच पाये हैं उनकी सेवा भी हम पूरी-पूरी नहीं कर पाये। वे खुद अभी कार्यकर्ता नहीं बन पाये हैं। वे जब स्वयं