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स्वर्गवासके उपलक्ष्यमें होनेवाले भोजमें मैं भी उनके सम्मानार्थ उपस्थित हुआ था। उस समयका दृश्य, उस समय जुदी-जुदी जातियोंके बीच होनेवाले झगड़े और भोजमें सम्मिलित लोगोंका स्वेच्छाचार आज भी मेरी आँखोंके सामने नाच रहा है। उसमें मैंने कहीं भी मृत व्यक्तिके प्रति आदरभाव नहीं देखा। शोककी तो वहाँ गुंजाइश ही कहाँ थी? इस सुधारके लिए वक्त दरकार है। रूढ़िका यह बल हमारी शिथिलता सूचित करता है। यदि जातिके मुखिया ऐसे सुधार न करें तो [साधारण] व्यक्ति कर सकते हैं। मुखियोंकी वर्तमान अवस्था करुणाजनक है। बहुधा वे सुधार करना तो चाहते हैं, परन्तु करते हुए डरते हैं। अत: साहसी लोग आगे बढ़कर सुधार करने की इच्छा रखनेवाले मुखियोंको बल दें और सुधारोंका दरवाजा खोलें।

रोटी-बेटी

जाति-भोजकी प्रथापर रोक लगानेसे भी शायद अधिक जरूरी सवाल है भिन्न-भिन्न जातियोंमें रोटी-बेटी व्यवहारको बढ़ावा देने का। वर्णाश्रम आवश्यक है; परन्तु अनेक उपजातियाँ हानिकारक है। जहाँ रोटी-व्यवहार है, वहाँ बेटी-व्यवहारके सम्बन्धमें दो मत नहीं होंगे। हम देखते भी हैं कि ऐसे बहुतसे विवाह हो चुके हैं। अब इस सुधारको रोका नहीं जा सकता। अत: यह बहुत आवश्यक है कि समझदार मुखिया ऐसे सुधारको उत्तेजन दें। यदि मुखिया लोग समयके रुखके प्रतिकूल लोगोंपर जरूरतसे ज्यादा सख्ती करेंगे तो उनका मान-भंग होनेकी सम्भावना है। सुधारकोंके लिए यह शोभनीय होगा कि यदि उन्हें ऐसे मुखियोंका विरोध रहते हुए सुधार करना पड़े तो वे विनयसे काम लें। ऐसे सुधारक भी देखे जाते हैं जो मुखियोंको तुच्छ मानकर उन्हें यह चुनौती देते हैं कि वे जो हो सके सो कर लें। ऐसी उद्धतता करनेसे सुधारकी गति रुकती है और यदि मुखिया बिलकुल निर्बल और दण्ड देनेमें अशक्त हो गये हों तो सुधारक, सुधारक न रहकर स्वेच्छाचारी हो जाता है। स्वेच्छाचार सुधार नहीं है। उससे समाज उठता नहीं, बल्कि गिरता है।

लाटरीसे राष्ट्रीय शिक्षा

लाटरीसे राष्ट्रीय शिक्षाके लिए धन-संग्रह करने के निमित्त एक विज्ञापन निकाला गया है। एक मित्रने मुझे इस विज्ञापनकी नकल भेजकर उसके सम्बन्धमें मेरी सम्मति पूछी है। मैं तो लाटरीके विरुद्ध हूँ। यह एक प्रकारका जुआ है। जहाँ सीधे तरीकेसे शिक्षाके लिए धन इकट्ठा न हो सके वहाँ कार्य संचालकोंमें कोई दोष है, चाहे वह कार्यकर्ताओंकी अयोग्यता ही क्यों न हो। ऐसे लोगोंको शिक्षा देनेका भार उठानेका अधिकार ही नहीं है। मेरी सलाह तो यही है कि लाटरीमें धन देनेवाले लोग अपने धनको सँभालकर रखें और उन्हें जितना धन लाटरीमें देना हो उतना किसी विश्वस्त मनुष्यको शिक्षाके निमित्त अथवा किसी अन्य कार्य के निमित्त दे दें। उनका यह कार्य स्तुत्य होगा। शेयरोंका सौदा भी एक तरहका जुआ है। मैंने सुना है कि उसमें बम्बईके सैकड़ों लोगोंका धन चला गया है। क्या इतना ही काफी नहीं है?