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विवरणमें बताया गया है कि वहाँ जो कपास होती है, उसे व्यापारी लोग निर्यातके लिए खरीद लेते हैं। जब वहाँ उपजनेवाली कपासका उपयोग करने के लिए हजारों कातनेवाले लोग वहीं मौजूद हैं तब उन्हें बेरोजगार बनाकर सारी कपास बाहर कतवा-बुनवाकर फिर हमारे पास कपड़े के रूपमें वापस लाना, क्या दुखका विषय नहीं है? सौभाग्यसे डा० राय तथा उनके कार्यकर्तागण स्थानीय कतैयोंकी जरूरतके लिए काफी कपास एकत्र कर रखने का बड़ा प्रयत्न कर रहे हैं।

विवरणमें उन इलाकोंमें प्रयुक्त धुनकीका भी वर्णन किया गया है और बताया गया है कि एक प्रतियोगितामें वह बारडोलीकी धुनकीसे बाजी मार ले गई। सूचिया धुनकी (इसका नाम चटगाँवके सूचिया गाँवके नामपर पड़ा है) की डोरी अन्ननासके पत्तोंके रेशोंसे बनाई जाती है और कहते हैं वह हपते-भर चल जाती है। सोचिए तो सही, बिलकुल सीधी-सादी और सस्ती चीजोंकी मददसे बढ़ियासे-बढ़िया काम किया जा सकता है।

श्री मजलीके साथ व्यवहार

सम्पादक
‘यंग इंडिया,' अहमदाबाद
प्रिय महोदय,

आपने अपने ३ अप्रैलके अंकमें बेलगाँव-निवासी श्री मजलीका एक पत्र छापा था, जिसमें बताया गया था कि जब वे जेलमें थे, “सरकारके कथनके विपरीत, उन्हें कताईका नहीं, बल्कि प्रति दिन १ पौंड सूतकी बॅटाईका काम दिया गया।” यह भी कहा गया है कि उन्हें “दिनभरमें उस १५ मिनटके समयके अलावा, जब उन्हें घूमने दिया जाता था, चौबीसों घंटे सबसे अलग एक कोठरीमें ताला बन्द करके रखा जाता था,” और बीमारीके बावजूद उन्हें ऐसा भोजन दिया जाता था जिसे पचाना उनके लिए मुश्किल था।

निःसन्देह आपको इसके सम्बन्धमें सच्ची बातें जानकर खुशी होगी और मुझे आशा है कि आप वे बातें छाप भी देंगे।

सच यह है कि श्री मजलीको चरखेसे डोरा या सूत तैयार करनेका काम दिया गया था और उन्हें अपनी कोठरीसे लगे एक बड़े कमरेमें अन्य वो साथियोंके साथ रखा गया था। दोनोंमें से एक पहले कांग्रेसी रह चुका है। उन्हें घूमने-फिरनेके लिए प्रतिदिन एक घंटे का समय दिया जाता था――आधा घंटा सुबह और आधा घंटा शाम। भोजनमें उन्हें निम्नलिखित चीजें दी जाती थीं:

(क) २३-१०-१९२३ को उन्हें इस जेलमें दाखिल किया गया और तबसे २-१२-१९२३ तक आम खुराक दी गई।

१. देखिए खण्ड २३, पृष्ठ ३६८-६९।