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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अनुरोध करूँगा कि अब आप पूरे उत्साह और संकल्पके साथ समस्त विदेशी वस्त्रोंका बहिष्कार शुरु कीजिए और उनके स्थानपर भारतीय मिलोंके बने कपड़ेको नहीं, बल्कि हाथसे तैयार किये गये खद्दरको प्रतिष्ठित कीजिए।

मुझे बहिष्कार समितिकी रिपोर्ट पढ़नेका मौका मिला था। ब्रिटेन अथवा साम्राज्यके मालके बहिष्कारके रूपमें अधिकसे-अधिक क्या किया जा सकता है, उसके सम्बन्धमें इस रिपोर्टको आखिरी फतवा माना जाना चाहिए और वास्तवमें वह है भी। लेकिन, मेरे विचारमें, इस रिपोर्टसे ऐसे बहिष्कारका समर्थन नहीं, बल्कि बहुत जोरदार खण्डन होता है। उसमें साफ कहा गया है कि साम्राज्यके विभिन्न देशोंसे जितना माल यहाँ आता है उसमें से ज्यादातर मालका, उदाहरणके लिए, रेलवेके सामानका, आयात तो स्वयं सरकार या अंग्रेज पेढ़ियाँ ही करती है; और इत्र, साबुन, जूते आदि जो छोटी-मोटी चीजें है उनका उपयोग मुख्यतः आराम-तलब और विलासप्रिय, वे भारतीय करते है जिनके बहिष्कारमें शामिल होनेकी कोई सम्भावना नहीं है। आँकड़ोंपर तनिक शान्तचित्त होकर विचार करने से स्पष्ट हो जायेगा कि यदि हर एक कांग्रेसी और नरमदलीय व्यक्ति इन छोटी-मोटी चीजोंका सख्तीके साथ बहिष्कार करे, तब भी उससे राष्ट्रीय धनकी जो बचत होगी वह हर साल किसी भी तरह एक करोड़ रुपये से ज्यादा नहीं हो सकती। इसके बाद भी जो लोग ऐसा सोच सकते हैं कि ऐसे बहिष्कारके परिणामस्वरूप केनियाके अंग्रेजों या कि आमतौरपर सभी अंग्रेजोंको अपनी नीति बदलनी पड़ेगी, तो यह असाधारण आशावादिता ही कहलायेगी।

इसपर आलोचकका कथन है, “लेकिन देखिए तो जब साम्राज्यके मालके बहिष्कारके बारेमें बम्बई नगर निगमके प्रस्तावकी खबर रायटरने बिना कोई शुल्क लिये तारसे भेजी तब चीपसाइडमें कैसी हाय-तोबा मच गई थी!" मगर हमें ब्रिटेनके व्यापारिक तौर-तरीकोंकी इतनी जानकारी तो है ही कि हम इस हाय-तोबाकी बात सुनकर फूल नहीं उठेंगे। “इंग्लैंडको नुकसान पहुँचानेको कटिबद्ध और अच्छाई-बुराईका कोई खयाल न रखने वाले भारतीय आन्दोलनकारियों" के खिलाफ भोली-भाली अंग्रेज जनताको भड़काने के लिए ऐसी बनावटी हाय-तोबा अकसर मचाई जाती रहती है और जब इस तरहकी उत्तेजना बनावटी नहीं, वास्तविक होती है तब वह इस बातका लक्षण है कि अंग्रेज व्यापारी व्यापारिक चढ़ाव-उतारकी हरएक घटनाके प्रति कितने सतर्क होते हैं। अपने स्वार्थोके प्रति ऐसी ही सहज जागरूकताकी बदौलत वे हर प्रकारके सम्भावित संकटके लिए बराबर तैयार रहते हैं। इसलिए मैं लोगोंको सलाह दूँगा कि वे इंग्लैंडकी―― और इंग्लैंड ही क्यों, किसी भी देशके रोष-प्रदर्शन या उसकी वाहवाहीका भरोसा न करें। आपके जिस कामको वे भय अथवा प्रशंसाकी दृष्टि से देखते हैं, वह काम यदि अपने आपमें काफी पुर-असर नहीं है तो उनके भय अथवा प्रशंसासे हमारी स्थिति निरापद कदापि नहीं बनती।

यदि हम क्रोधमें अन्धे ही न हो गये हों तो इस बातका एहसास होनेपर कि हम अपनी कुछ राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी इंग्लैंडपर निर्भर करते हैं,

१. पुराने लन्दनका एक बाजार।