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जेलके अनुभव -५

और उसे तरह दिये रहते हैं। अनुभवसे उन्होंने सीख लिया है कि जेलके नियमोंके ऐसे उल्लंघनका पता लगाना अथवा उनका न होने देना असम्भव बात है। मैं कह देना चाहता हूँ कि मैं इस विषयमें अपने सिद्धान्तसे टससे-मस नहीं हुआ। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी अपने कामसे ऐसा “बेतारका सन्देश" भेजा हो। जब कभी भेजा है, जेल शासनके हितकी दृष्टिसे प्रेरित होकर ही। मेरा खयाल है इसके परिणामस्वरूप अधिकारीवर्गने मुझपर अविश्वास करना बन्द कर दिया और यदि उनकी चलती तो वे उपर्युक्त ढंगके प्रसंगोंपर बीच-बचाव करनेके मेरे प्रस्तावका लाभ उठाना पसन्द करते। परन्तु ऊपरके अधिकारीगण जो अपनी प्रतिष्ठाके विषयमें जरूरतसे ज्यादा सतर्क थे, इस तरहकी कोई बात सुननेको तैयार नहीं थे।

इस प्रकार उपर्युक्त प्रसंगपर मैंने “बेतारके सन्देश" का उपयोग किया, परन्तु उसका लगभग कोई असर नहीं हुआ। यह उपवास बहुत दिन चलता रहा और जब टूटा तो कह नहीं सकता कि मेरे सन्देशोंका उसमें कुछ हाथ था या नहीं।

यह पहला अवसर था जब मुझे महसूस हुआ कि मानवताकी खातिर मुझे ऐसे मौकोंपर बीचमें पड़ना चाहिए।

दूसरा प्रसंग तब आया जब मुलशीपेटाके कैदियोंको उनके कम काम करनेपर कोड़े लगाये गये। यहाँ उस दुखभरी कथाको विस्तारसे कहना जरूरी नहीं है। इन कैदियोंमें कुछ कैदी किशोरावस्थाके थे। सम्भव है, उन्होंने जान-बूझकर अपनी शक्तिसे कम काम किया हो। उन्हें पीसनेका काम सौंपा गया था। पता नहीं क्यों, मुलशी-पेटावाले इन कैदियोंको दूसरे स्वराज्यवादी कैदियोंकी तरह “राजनीतिक" कैदियोंकी श्रेणीमें नहीं रखा गया था। कारण चाहे कुछ भी रहा हो, काममें भी उन्हें ज्यादातर चक्की चलानेका काम ही दिया जाता था। चक्की चलानेका काम, हम लोगोंमें एक नाहक बदनाम काम है। मैं जानता हूँ कि कोई भी काम जब जबरन कराया जाता है और जब काम लेनेवाले लोग बराबर नेक और भले नहीं होते तो वह करनेवालेके लिए बहुत कष्टकर होता है। फिर भी जो व्यक्ति अपनी अन्तरात्माकी आवाजपर स्वयं जेल जाता है, उसे तो इस तरहका जो भी काम दिया जाये उसको गर्व और आनन्दकी चीज समझना चाहिए। मुलशीपेटाके कैदी――और सिर्फ वे ही क्यों, दूसरे कैदी भी――समष्टि रूपमें काम चोर नहीं थे। उन सबके लिए यह एक नया ही अनुभव था और इसलिए सत्याग्रही के नाते उनका क्या फर्ज है, अधिकसे-अधिक काम किया जाये अथवा कमसे-कम या बिलकुल किया ही न जाये, इसका एहसास उन्हें नहीं था। मुलशीपेटाके कैदियोंमें से अधिकांश इस मामलेमें शायद उदासीन वृत्ति रखते थे। इस बारे में उन्होंने शायद कोई विचार ही नहीं किया था। फिर भी उनमें बहुतसे कैदी तेज-दम मर्द और नौजवान थे। वे सीधे “जो हुक्म” कहकर हुक्म बजानेवाले लोग नहीं थे। इस कारण उनमें और अधिकारियोंमें हमेशा खटपट हो जाया करती थी।

१. देखिए खण्ड २३, पृष्ठ १६७-६८।