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जेलके अनुभव -५

मिले भी। चूंकि उन कैदियोंको जानबूझकर अलग-अलग खण्डोंमें रखा गया था, भाई जयरामदासको अपना अहाता छोड़कर उन सब खण्डोंमें जाना पड़ा। कैदी-कर्मचारियों और एक गोरे जेलरको इस बातकी जानकारी जरूर थी। भाई जयरामदासने उनसे कहा कि मैं जेलके नियमोंको भंग कर रहा हूँ, यह मैं जानता हूँ। आप मेरे खिलाफ खुशीसे रिपोर्ट कर सकते हैं। यथासमय उनके बारेमें रिपोर्ट हुई। मेजर जोन्सने कहा कि यद्यपि मैं जानता हूँ कि जयरामदासने जो-कुछ किया उसका उद्देश्य अच्छा था और यद्यपि मैं इस कामकी सराहना भी करता हूँ फिर भी इस सिलसिलेमें जेलके नियमका जो भंग हुआ है, मुझे इसके सम्बन्धमें कार्रवाई करनी ही होगी। उन्होंने भाई जयरामदासको सात दिनकी तनहाईकी सजा दी। मुझे जब यह मालूम हुआ तब मैंने मेजर जोन्ससे कहा कि मुझे भी कमसे-कम जयरामदासके बराबर तो सजा मिलनी ही चाहिए; क्योंकि जयरामदासने जेलके नियमका भंग मेरे कहनेसे ही किया है। उन्होंने कहा कि जेलके अनुशासनको बनाये रखने की दृष्टिसे नियमके प्रत्यक्ष उल्लंघनके विरुद्ध बाजाब्ता पेश की गई शिकायतपर कार्रवाई करना मेरा फर्ज है। जयरामदासने जो-कुछ किया, वे उसपर अप्रसन्न नहीं थे; बल्कि यह सोचकर प्रसन्न ही थे कि उन्होंने सजा भुगतनेकी जोखिम उठाकर भी उपवास करनेको तैयार राजनीतिक कैदियोंसे मुलाकात की; और इस तरह एक बुरी परिस्थितिको पैदा नहीं होने दिया। मुझे सजा देने के बारेमें उन्होंने कहा कि “आपको सजा देनेका मुझे तो कोई कारण दिखाई नहीं देता, क्योंकि आप अपनी हद छोड़कर नहीं गये; और जयरामदास गये सो आपके भेजे हुए गये, यह हकीकत अधिकृत रूपमें मेरे सामने पेश नहीं हुई।" मैं उनकी दलीलका मर्म समझ गया और फिर मुझे सजा देने के बारेमें मैंने अपना आग्रह छोड़ दिया।

मैं अगले प्रकरणमें एक ऐसी घटनाका वर्णन करूँगा जो सत्याग्रहीकी दृष्टिसे अपेक्षाकृत अधिक प्रभावपूर्ण और महत्वकी है। उसके बाद हम अहिंसात्मक व्यवहारके परिणामों और उपवासके नैतिक पहलूपर विचार करेंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १५-५-१९२४