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आठ

सक्रिय रूपसे हमारे साथ सहयोग करे। इसकी अपेक्षा हम तबतक नहीं कर सकते जबतक कि कुछ मामलोंमें हम उनकी बात न माने।" (पृष्ठ ३७४)।

स्वराज्यवादी दलके प्रति समझौतेके इस रवैयेसे अपरिवर्तनवादी लोग बड़ी विषम स्थितिमें पड़ गये। गांधीजी उनकी परेशानीको समझते थे, लेकिन उन्होंने उन्हें समझाया कि कांग्रेसमें उनकी स्थिति चाहे जैसी रहे, वे उसकी कोई चिन्ता न करते हुए एकाग्रचित्त होकर रचनात्मक कार्यक्रमको पूरा करने में जुट जायें। सबसे कट्टर असहयोगी च० राजगोपालाचारीको लिखे अपने १५ सितम्बरके पत्रमें उन्होंने कहा: "मैं जानता हूँ कि मैं आपके और दूसरे लोगोंके लिए अपने-आपको इन आकस्मिक परिवर्तनोंके अनुकूल ढाल लेना कितना मुश्किल होगा। लेकिन मैं करूँ भी तो क्या! मैं जानता हूँ कि मैं अपने साथियोंकी निष्ठा और आस्थापर अनुचित दबाव डाल रहा हूँ।" (पृष्ठ १५८)। उन्होंने असहयोगियोंको इन शब्दोंमें समझाया: "अपना उद्देश्य पानेके लिए हमें थोड़ा झुकना है। हम व्यक्तिगत रूपसे असहयोगके छोटेसे-छोटे अंशको भी कायम रखें, किन्तु साथ ही हमें चाहिए कि जो लोग इसमें विश्वास नहीं रखते, हम उनका मार्ग इसके लिए सुगम बनायें कि वे हमें और रचनात्मक प्रयत्नोंमें देशको सहायता दें।...क्या यह देख सकना बिलकुल आसान नहीं है कि सेवाके लिए न सत्ताकी आवश्यकता है, न पद-प्रतिष्ठाकी? मैं तो चाहता हूँ कि हममें से हर आदमी केवल देशका सेवक बन जाये। मैं चाहूँगा कि अपरिवर्तनवादी लोग ऐसा व्यवहार करें कि स्वराज्यवादी, लिबरल तथा अन्य सब उनकी आवश्यकता महसूस करें।" (पृष्ठ २७८-७९)। अपने सहयोगियोंकी उन्हें कितनी चिन्ता रहती थी, इसका परिचय हमें राजाजीके नाम लिखे उनके पत्रकी इन पंक्तियोंमें मिलता है: "मेरी यही कामना है कि यह आपके व्यथित हृदयके लिए मरहमका काम करे। ... बारडोलीमें मैंने अहिंसाके क्षेत्रमें एक दिशामें सबसे साहसपूर्ण प्रयोग किया था। यह समझौता दूसरी दिशामें सबसे साहसपूर्ण प्रयोग है।" (पृष्ठ ३४५-४६)।

कलकत्ता-समझौतेकी तजबीजके मुताबिक बम्बईमें २१ और २२ नवम्बरको एक सर्वदलीय सम्मेलन हुआ। इसका उद्देश्य सरकारके विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा तैयार करना था। सरकारने सम्भवतः मुख्य रूपसे स्वराज्यवादी दलको कुचलनेके लिए बंगालमें दमनकी नीति आरम्भ कर दी थी। देशके राष्ट्रवादी तत्त्वोंके आपसी मतभेदों और फूटसे लाभ उठानेकी सरकारी चालको गांधीजी भली-भाँति समझ गये थे। उनके कहनेपर सर्वदलीय सम्मेलनने एक प्रस्ताव पास करके सरकारकी कारगजारियोंकी तीव्र भर्त्सना की और "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके साथ देशके अन्य राजनीतिक दलोंको फिरसे मिलाने और स्वराज्यकी एक योजना तैयार करनेका सर्वोत्तम रास्ता क्या हो, इसपर विचार करनेके लिए एक समिति नियुक्त की। (पृष्ठ ३६५)। यह कोई सरल काम नहीं था। लिबरलों और इंडिपेंडेंटोंके कांग्रेसमें शामिल होनेके रास्ते में कुछ अड़चनें थीं। इनमें से एक तो थी स्वराज्यका सिद्धान्त, जिसका अर्थ पूर्ण स्वराज्य भी लगाया जा सकता था। फिर, उन्हें कांग्रेसमें स्वराज्यवादी दलके दर्जे और सदस्यताके लिए प्रतिदिन सूत कातनेकी शर्तपर भी आपत्ति थी। इन सभी प्रश्नोंपर गांधीजीके विचार बिलकुल निश्चित थे। फिर भी, उन्होंने दूसरे दलोंको