पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/१७

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ग्यारह

धो बैठा हूँ, और ऐसा मालुम होता है कि मैं इधर-उधर भटक रहा हूँ। मुझे अनुभव तो ऐसा होता है कि मेरा सखा निरन्तर मेरे आसपास है, पर फिर भी वह मुझसे दूर प्रतीत होता है, क्योंकि वह मुझे ठीक-ठीक राह नहीं दिखा रहा है।...बल्कि उलटा, गोपियोंके छलिया नटखट कृष्णकी तरह वह मुझे चिढ़ाता है। कभी दिखाई देता है, कभी छिप जाता है, और कभी फिर दिखाई दे जाता है।" (पृष्ठ ८३)। वे बार-बार चरखेके पास जाकर बैठते रहे और अन्तमें तब जब उन्हें शान्तिकी तलाश नहीं रह गई थी, वह "अनायास ही मिल गई।" उनकी अन्तरात्माने उनसे कहा, "यदि तुम और किसी भी बातकी परवाह न करो, बल्कि केवल जिसे तुम अपना कर्त्तव्य समझते हो उसीका पालन करो तो सबकुछ ठीक होगा।" (पृष्ठ ४८२)। गांधीजीने स्वयं ही पाठकोंका ध्यान "नियमित रूपसे कार्य करनेकी उपयोगिता" की ओर दिलाया और बताया कि उनके लिए अनुक्रमणिका तैयार करनेजैसा शुष्क और उबानेवाला काम किस तरह एक दैनिक व्यायाम और व्यक्तिको तन्मय कर देनेवाला काम बन गया। (पृष्ठ १६५)। स्वच्छता और दृढ़ता सही कर्मसे आती है। "किसी बातको अपने आचरणमें उतारना ही उसके पक्षमें दिया गया सबसे अच्छा भाषण है और उसके लिए किया गया सबसे अच्छा प्रचार है; यह काम हर व्यक्ति कर सकता है तथा इसमें कोई विघ्न-बाधा भी नहीं डालेगा। दूसरोंकी चिन्ता न करना अहुरमज्दका तरीका है। अहरमन हमें हमारे विश्वाससे डिगाकर अपने जालमें फँसाता है। ईश्वर काबा या काशीमें नहीं है। वह तो हम सबके भीतर है। इसलिए स्वराज्य भी हमें अपने भीतर खोजनेसे ही मिलेगा। यदि हम दूसरोंसे या अपने साथी कार्यकर्त्ताओंसे भी यह आशा करें कि वे स्वराज्य लेकर हमें दे देंगे, तो हमारी यह आशा व्यर्थ होगी।" (पृष्ठ ४८३)