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क्या वे राक्षस थे?

एक भाईने रामचन्द्र, युधिष्ठिर तथा नलपर आक्षेप लगाये हैं और मुझसे उनका उत्तर देनेकी माँग की है। रामचन्द्रने सीताको अग्निमें प्रवेश करवाया और उसका त्याग किया, युधिष्ठिरने जुआ खेला और द्रौपदीकी रक्षा करने तककी हिम्मत खो बैठा, नलने अपनी स्त्रीके साथ धोखा किया और उसे अर्ध नग्नावस्थामें घोर जंगलमें भटकती छोड़ गया। इन तीनोंको मनुष्य कहा जाये कि राक्षस?

इसका उत्तर तो केवल दो व्यक्ति दे सकते हैं। या तो कवि अथवा वे सतीसाध्वी स्त्रियाँ। मैं तो एक सामान्य मनुष्यकी दृष्टिसे देखता हूँ अतः मेरे लिए तो ये तीनों पुरुष वन्दनीय हैं। रामकी बात तो एक ओर रख देनी चाहिए। किन्तु हम क्षण-भरके लिए ऐतिहासिक रामको अन्य दोनोंकी पंक्तिमें रख दें। अगर तीनों सती महिलाएँ इन महापुरुषोंकी अर्धागनियाँ न होतीं तो वे इतिहास में सतीके रूपमें प्रख्यात न होतीं। दमयन्ती नलका ही नाम रटती रही, सीताके लिए रामके सिवा इस जगत् में कोई दूसरा पुरुष न था और द्रौपदी धर्मराजपर क्रुद्ध होने के बावजूद उसका साथ नहीं छोड़ती थी। जब-जब इन तीनों महापुरुषोंने इन सती-साध्वियोंको दुःख दिया तब-तब यदि हम उनकी हृदय-गुहामें पैठ पाते तो वहाँसे झरनेवाली दुःखाग्नि हमें जलाकर भस्म कर देती। रामको जो दु:ख हआ था भवभूतिने उसका चित्रण किया है। द्रौपदीको फलकी तरह रखनेवाले ये ही पाँच भाई थे और उसके क्रोधसे भरे वचनोंको सहनेवाले भी वही लोग थे। नलने जो-कूछ किया सो अपनी भ्रान्तावस्थामें किया। नलकी पत्नीपरायणताको तो, जब वह ऋतुपर्णको साथ लेकर चला तब देवता लोग भी आकाशसे झाँक-झाँककर देख रहे थे। इन तीनों स्त्रियोंके प्रमाणपत्र मेरे लिए तो पर्याप्त हैं। हाँ, इतना सच है कि कवियोंने इन तीनों स्त्रियोंको उनके पतियोंकी अपेक्षा अधिक गुणी चित्रित किया है। सीता बिना राम क्या, दमयन्ती बिना नल क्या और द्रौपदी बिना धर्मराज क्या हैं? पुरुष स्वभावसे अधीर होते हैं, उनका धर्म भी प्रसंगानुसार बदलता रहता है, उनकी भक्ति "व्यभिचारी" होती है। जबकि इन सतियोंकी भक्ति स्फटिक मणिके समान स्वच्छ है। इन स्त्रियोंकी क्षमाशीलताकी तुलनामें पुरुषकी क्षमाशीलता कुछ भी नहीं और चूँकि क्षमा वीरताका लक्षण है इसलिए ये सती महिलाएँ अबला नहीं वरन् सबला थीं। उनकी वीरताके आगे पुरुषोंकी वीरता पानी भरती है। लेकिन यह दोष हमें गिनना ही हो तो पुरुष-मात्रका गिनना होगा, ऐसा नहीं कह सकते कि वह नलादिमें ही था। कवियोंने इन स्त्रियोंको सहनशीलताकी मूर्ति के रूपमें चित्रित किया है। मैं इनको सती स्त्रियोंमें शिरोमणि मानता हूँ; लेकिन मैं उनके पुण्यात्मा पतियोंको राक्षस नहीं मान सकता। उनको राक्षस माननेसे क्या ये सतियाँ भी दोषी नहीं ठहरेंगी? सतीके समीप आसुरी भावना कदापि नहीं रह सकती। पतियोंको इन सतियोंसे भले ही कम माना जाये; परन्तु उनकी जाति तो एक ही है---वे दोनों पूजनीय हैं। मुझे इस मान्यतामें कि "जो-कुछ पुराना है वह सब पवित्र है", जितना दोष दिखाई देता है उतना ही दोष इस विचारमें भी दिखाई देता है कि "जो-कुछ पुराना है वह सब दूषित है।"