पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चूसना है। जब गन्नेका मौसम न हो तब हमें गुड़का उपयोग करना चाहिए। यदि तिसपर भी किसीका काम न चले तो उसे स्वदेशी खाँडकी खोज करनी चाहिए किन्तु उसमें दूकानदार द्वारा मिलावट किये जानेकी जोखिम तो उठानी ही होगी।

काठियावाड़में खादी-प्रचार

श्री एम्हर्स्टने 'विश्वभारती' में काठियावाड़की शोचनीय दशाका जो वर्णन किया है, उसे मैंने अभी-अभी पढ़ा। उसमें वे कहते हैं कि काठियावाड़के जंगलोंका नाश होनेकी वजहसे वहाँकी जमीनमें खुश्की बढ़ती जा रही है और अकालका भय भी बढ़ रहा है। चरागाह कम हो रहे हैं, इसलिए जो पशु कभी स्वस्थ दिखाई देते थे उनका भी नाश होता जा रहा है। शहरों में कारखाने खुलने के कारण गाँवोंकी आबादी कम होती जा रही है और अन्तमें किसानोंके यहाँ न रहने से शहर भी नष्ट हो जायेंगे। ऐसे परिवर्तनोंके कारण काठियावाड़की कला भी श्रीहीन होती जा रही है।

यह लगभग भविष्यवाणी है। यह बात जिस हदतक काठियावाड़पर लागू होती है, उसी हदतक हिन्दुस्तानपर भी लागू होती है। लेकिन काठियावाड़ बहुत छोटा-सा प्रायद्वीप है, इस कारण अभी उसकी रक्षा की जा सकती है। इसीसे श्री एम्हस्ट वर्तमान संक्रान्तिकालमें भूत और भविष्य दोनों स्थितियोंको एक साथ देख सके हैं। मैने अनेक बार लिखा है कि वर्तमान [यन्त्रोद्योग-प्रधान] प्रवृत्ति उन्हीं देशोंमें निभ सकती है जहाँ दूसरे देशोंसे कच्चा माल आता हो। दूसरे शब्दों में एक औद्योगिक देश किसी दूसरे देशको नुकसान पहुँचाकर ही समृद्ध हो सकता है। हिन्दुस्तानका निर्वाह दूसरे देशोंसे नहीं होता बल्कि वह स्वयं इंग्लैंड और अन्य देशोंका खाद्य है। अगर हमारे शहर भी इन देशोंका अनुकरण करेंगे तो ग्रामीण किसानोंपर दूना बोझ आ पड़ेगा।

काठियावाड़ कुछ हदतक ऐसी भयंकर स्थितिसे बच सकता है। वह घर-घर वृक्ष बोये और उगाये; गोचर-भूमिको बढ़ाये तथा मिलों और फैक्टरियोंकी प्रवृत्तिको कम करे। छोटेसे-छोटे प्रदेशमें मिलें और फैक्टरियाँ लोगोंपर असह्य भारस्वरूप हैं, इस बातको तो सामान्य कोटिका गणितज्ञ भी समझ सकता है। यदि राजा लोग और उनके दीवान शान्त चित्त होकर परोपकारकी भावनासे विचार करें तो उन्हें मालूम होगा कि किसानों के पोषणमें उनका पोषण भी है। किसानोंके पोषणमें केवल दो वस्तुओंकी सावधानी रखनी पड़ती है: उनके खेत हरे-भरे रहें और उन्हें खेतीसे बचे समय के लिए उद्योग मिले। यह उद्योग सम्पूर्णतः रुईकी क्रियाओंपर आधारित होने के कारण किसानों के घरमें होता है। इसका केन्द्रबिन्दु चरखा है। उसको जो पोषित करता है वह प्रजाका पोषण करता है। काठियावाड़में विदेशी अथवा मिलका कपड़ा आये, यह बात असह्य होनी चाहिए।

अमरेली खादी-कार्यालय

आजकल चरखेकी प्रवृत्तिका प्रसार करनेके जो प्रयत्न चल रहे हैं उसमें काठियावाड़ भी भाग ले, यह वांछनीय है और मैं उससे ऐसी आशा भी रखता हूँ। इसलिए