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टिप्पणियाँ

नाते हम ऐसे ही बरतावकी आशा रख सकते हैं जैसा बरताव उनके और उनके पतिके साथ किया गया है। यदि आचार्य गिडवानी अपने सिद्धान्तको छोड़ दें तो उन्हें आज ही रिहाई मिल सकती है। उन्हें सिर्फ नाभाकी सीमामें पैर रखने के अपने वीरोचित और मानवीय कार्य के लिए माफी माँगनी पड़ेगी। बस वे छोड़ दिये जायेंगे। किन्तु वे ऐसा न करेंगे। सत्याग्रहियोंका तो धर्म ही है कि अपमानजनक स्वतन्त्र जीवनकी बजाय वे कैद को ही पसन्द करते हैं।

मन्दिरोंकी पवित्रताका भंग

यदि मुरादाबादके जिला मजिस्ट्रेटकी विज्ञप्तिपर विश्वास किया जाये तो उसमें जो समाचार प्रकाशित हुए हैं वे बड़े ही गम्भीर और चिन्ताजनक हैं। कहा जाता है कि दो मन्दिर अपवित्र किये गये और वहाँ एकत्र हिन्दुओंको बुरी तरह पीटा गया। मन्दिरोंको इस प्रकार महज दुष्टतावश अपवित्र करनेका कोई कारण नहीं बताया गया है। कहा जाता है कि जिला लखनऊमें अमेठी नामक स्थानपर भी ऐसी ही घटना हुई है। कहते हैं वहाँ मजिस्ट्रेटके हुक्मके खिलाफ हिन्दुओंने शंख फूँके। यदि उन्होंने ऐसा किया तो यह काम मस्जिट्रेटका था कि वह उन शंख बजानेवालोंको सजा देता। किन्तु मुसलमानोंका यह काम हरगिज न था कि वे एक बड़ी तादादमें मन्दिरमें घुस जाते और हमला करते और उसे अपवित्र कर देते। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसी घटनाओंके पीछे कोई संगठित जमात है। यह जमात उन लोगोंकी है जो जान-बूझकर हिन्दू-मुसलमानोंमें मनमुटाव पैदा करते हैं और हिन्दूमुस्लिम एकतामें बाधा डालते हैं। समझ में नहीं आता कि ऐसे काम करनेसे उस जमातको क्या हासिल होगा। इससे इस्लामकी इज्जत नहीं बढ़ सकती और वह लोकप्रिय नहीं हो सकता। यदि किसी दुनियावी लाभके लिए ऐसे काम किये जाते है तो वह भी नहीं मिल सकता। यदि ऐसे उपायोंसे इस जमातके संगठनकर्त्ता सरकारी कृपा पानेकी आशा रखते हों तो उनका यह भ्रम थोड़े ही दिनोंमें दूर हो जायेगा।

नेटालके भारतीय

नेटाल सरकारने एक अध्यादेश पास करके वहाँ रहनेवाले हिन्दुस्तानियोंको नगरपालिकाके चुनावोंके मताधिकारसे वंचित कर दिया है। वहाँके हिन्दुस्तानियोंने इसके प्रति विरोध प्रकट करते हुए एक करुणाजनक तार भेजा है। इस लड़ाईकी शुरुआत १८९४ में हुई थी। अन्तत: इस झगड़ेका फैसला वहाँ बसनेवाले हिन्दुस्तानियोंके हकमें हो गया था। तत्कालीन नेटाल सरकारने इस बातको कबूल किया था कि हिन्दुस्तानी कर-दाताओंके नगरपालिका मताधिकारको छीनना अत्यन्त अन्यायपूर्ण होगा। अलबत्ता, वहाँके हिन्दुस्तानियोंने राजनैतिक मताधिकारसे वस्तुतः वंचित रहना तो कबूल कर लिया था। परन्तु कोई सरकार जब किसी नीति या सिद्धान्तको बदलना चाहती है तब पिछले वचन या प्रतिज्ञाएँ उसके रास्तेमें बाधक नहीं बनतीं। दक्षिण आफ्रिकाके हिन्दुस्तानियोंके इतिहासमें हमने इसके अनेक उदाहरण देखे हैं। मौका


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