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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पड़ते ही, उन्हें दिया गया प्रायः हर आश्वासन तोड़ा गया है। नेटाल-स्थित हमारे देशभाई इस हुक्मसे बड़े पसोपेशमें पड़ गये हैं। उन्होंने हिन्दुस्तानकी जनतासे करुण स्वरमें सहायता माँगी है। पर वे शायद यह नहीं जानते कि उन्हें कोई वास्तविक सहायता देनेकी सामर्थ्य हममें नहीं है। हाँ, हमदर्दी तो है ही। अखबारोंमें लेख भी उनके लिए लिखे जायेंगे, पर मुझे अन्देशा है कि इससे अधिक सहायता उन्हें नहीं मिल पायेगी। यदि भारत सरकार, शर्मके कारण उनके सिरपर मँडरानेवाली इस लूट-खसोटसे उन्हें बचाने के लिए कुछ करना चाहे तो सचमुच कारगर कदम उठा सकती है। मैं इसे 'सिरपर मँडरानेवाली' इसलिए कह रहा हूँ कि इस अध्यादेशके लिए दक्षिण आफ्रिका संघके गवर्नर-जनरलकी मंजूरी जरूरी होती है। पहले एक बार वे एक ऐसे ही अध्यादेशको नामंजूर कर चुके हैं। अगर अपने विशेषाधिकारका प्रयोग करें तो वे इस अध्यादेशसे हिन्दुस्तानियोंका जो अपमान होगा उससे उन्हें बचा सकते हैं। जब श्रीमती सरोजिनी नायडू दक्षिण आफ्रिकामें अपना गौरवशाली कार्य कर रही थीं तब जितने पत्र वहाँसे आते थे उनमें मैं अपने देश-भाइयोंको उसपर बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाते हुए देखता था। परन्तु दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीय जहाँ सभ्यतासे व्यवहार कर सकते हैं, वहाँ वे अपने इरादोंको पूरा करनेका निश्चय भी रखते हैं---फिर भले ही वह सरासर अन्याय हो---जैसा कि यह मामला है। जनरल स्मट्सकी देख-रेख में उन्होंने मीठी-मीठी बातें करके अन्याय करते जानेकी कला सीख ली है। इसका आखिरी इलाज तो खुद हमारे देश-भाइयोंके ही पास है।

केनियाका फैसला

केनियाके भारतीयोंके बारेमें उपनिवेश-मन्त्रीकी घोषणा बहुत चतुराई भरी है। पढ़नेपर वह बिलकुल निर्दोष मालूम होती है लेकिन इस घोषणाने केनियाके हमारे देशवासियोंसे लगभग वह सब छीन लिया है जिसके लिए वे संघर्षकर रहे थे। श्री टामसने आव्रजन कानूनका विचार त्याग दिया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इस कानूनको बनानेकी कोई जल्दी भी नहीं थी। अन्य मुद्दोंपर प्रतिकूल निर्णय होने के कारण आव्रजन अपने-आप ही कम हो जायेगा। भारतीय लोग पहाड़ी क्षेत्रोंमें भू-सम्पत्ति रखने के अधिकारको बरकरार रखनेकी माँग कर रहे थे। उनकी माँग सामान्य मताधिकारमें बराबरीके दर्जे के लिए थी। वे न्यायोचित ढंगसे संघर्ष करनेका अधिकार चाहते हैं, दयाकी भीख नहीं चाहते। उक्त घोषणा उन्हें केनियाके सबसे स्वास्थ्यवर्धक भागमें भू-सम्पत्ति रखने के अधिकारसे वंचित कर देती है। उसमें जातिगत मताधिकार देनेकी व्यवस्था है, जिसका वास्तवमें यह अर्थ है कि हमारे देशवासियोंकी कोई प्रभावकारी राजनीतिक शक्ति नहीं रह जायेगी। यह संघर्ष कई वर्षोसे चल रहा है। पिछले वर्ष नरमदलीय और अन्य विचारधाराओंके भी सब भारतीय एक हो गये थे। उन्होंने ब्रिटिश मालके बहिष्कारकी भी घोषणा कर दी। लेकिन ब्रिटिश मालके आयातपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और केनियाके भारतीयोंको अपने आन्दोलनसे कोई लाभ नहीं हुआ। हमारे पास शक्ति नहीं है, बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि हमारे पास जो शक्ति है, हम नहीं जानते कि उसका उपयोग कैसे करें। पाठकोंको