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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चरखेपर गुलामोंकी तरह कड़ी मेहनत करनेकी जरूरत नहीं। बल्कि उसके जरिये कड़ी मेहनतके बाद किसानोंको एक अच्छे किस्मके मनोरंजनका मौका मिलता है। हाँ, भारतकी महिलाओंको अलबत्ता यह स्थायी वस्तु के रूपमें भेंट किया गया है। जब-जब उनके पास समय होगा वे चरखा कातेंगी। यदि अधिकांश मेहनत शारीरिक श्रम करनेवाले लोग औसतन सिर्फ आधा घंटा रोज चरखा कातें तो न केवल अपने लिए काफी सूत कात सकेंगे बल्कि दूसरोंके लिए भी सूत जुटा सकेंगे। ऐसा मेहनतकश अपनी आयमें हर साल कमसे-कम १ रु०, ११ आ० की वृद्धि तो कर ही लेगा, जो कि लगभग भूखों मरते आदमीके लिए कम नहीं है। इस बातको सब लोग मानते है कि आज भारतमें हाथ-करघे और जुलाहे तो इतनी तादादमें मौजूद है कि वे हमारी जरूरतका तमाम कपड़ा बन सकते हैं। ऐसी हालतमें सवाल सिर्फ हाथ-कताईका ही रह जाता है। यदि किसान भाई इसे अपने हाथमें ले लें तो बहुत बड़ी पूँजी बिना लगाये कपड़े के मामलेमें आत्म-निर्भर बननेकी भारतकी समस्या हल हो सकती है। इसके मानी यह होंगे कि कमसे-कम ६० करोड़ रुपया उन करोड़ों कतैयों, हजारों धुनियों और जुलाहोंके बीच घूमता-फिरता रहेगा जो कि अपनी झोपड़ी में काम करेंगे और उसी हदतक किसानोंकी कमाईकी क्षमता भी बढ़ेगी।

तमाम दुनियाका यह अनुभव है कि किसानोंको एक ऐसे धन्धेकी जरूरत रहती है, जिससे वे फुरसतके समय में कुछ कमाई कर सकें--अपनी आमदनी बढ़ा सकें। इस मौकेपर यह बात हरगिज न भूलनी चाहिए कि बहुत दिनोंकी बात नहीं है जब भारतकी महिलाएँ देशके कपड़ेकी आवश्यकता-भरका सूत फुरसतके वक्तमें कातकर तैयार करती थी और चरखेके इस पुनरुत्थानने तो इस बातकी सत्यताको बड़ी अच्छी तरह प्रदर्शित कर दिया है। यह खयाल करना गलत है कि चरखेका आन्दोलन असफल हआ है। हाँ, कार्यकर्त्ता अलबत्ता कुछ अंशोंमें काम नहीं कर पाये है। लेकिन जहाँ कहीं उन्होंने दिल लगाकर काम किया है वहाँ बराबर चरखेका काम चल रहा है। यह सच है कि अभी उसमें स्थायित्व नहीं आ पाया है। इसका कारण है व्यवस्था और संगठनकी अपूर्णता। एक कारण यह भी है कि कतैयोंको अभी यह यकीन नहीं हो पाया है कि उनको काम निरन्तर मिलता रहेगा। मैं श्री रायसे प्रार्थना करता हूँ कि वे पंजाब, कर्नाटक और आन्ध्र तथा तमिलनाडके कुछ हिस्सोंमें स्थितिको खुद देखें-समझें। वे खुद देख लेंगे कि चरखेमें कितनी सम्भावनाएँ हैं।

भारतवर्ष अकालोंका देश है। हमारे भाई-बहनोंके लिए सड़कोंपर गिट्टी तोड़ना अच्छा है या रुई धुनना और सूत कातना? लगातार अकालोंसे पीड़ित रहने के कारण उड़ीसाकी जनता कंगालीकी हालतमें पहुँच गई है। यहाँतक कि अब उनसे काम कराना भी बहुत मुश्किल हो गया है। वे धीरे-धीरे मौत के मुँहमें जा रहे हैं। उनके लिए अगर जिन्दगीकी कोई आशा है तो वह चरखेका पुनरुत्थान ही है।

श्री राय उन्नत तरीकोंसे खेती करनेपर जोर देते हैं। हाँ, इसकी जरूरत है, पर चरखेकी तजवीज कृषि-सुधारके साधनोंकी जगह नहीं की जा रही है, बल्कि उलटे यह तो सुधारकी दिशामें पहला कदम है। इस सुधारके रास्ते में भारी कठिनाइयाँ