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अन्तःकरणकी आड़में

किया गया आचरण नहीं कहते। बच्चे में अन्तःकरण नहीं होता। पत्र-लेखकने जो बिल्लीका उदाहरण दिया है, सो वह अपने अन्तःकरणके आदेशका पालन करने के लिए चूहेका शिकार नहीं करती। वह तो वैसा अपने स्वभावके कारण करती है। अन्तःकरण तो कठोरतम साधनाका मीठा फल है। इसलिए गैर-जिम्मेदार किशोरोंमें, जो अपनी पशु-वृत्तिकी प्रेरणाके अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु या किसी व्यक्तिके आदेशपर चले ही नहीं, अन्तःकरण नहीं होता। इसी प्रकार सभी वयस्क लोगोंमें भी अन्तःकरणका गुण नहीं होता। उदाहरणके लिए बर्बर जातियोंके लोगोंमें दरअसल अन्तःकरणका कोई गुण नहीं होता। अन्तःकरण तो केवल संवेदनशील हृदयके अन्दर ही रहता है। इसलिए व्यक्तियों के अन्तःकरणसे भिन्न सार्वजनिक अन्तःकरण नामकी कोई वस्तु नहीं है। अतः यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि जब कोई व्यक्ति प्रत्येक बातमें अन्तःकरणकी दुहाई देता है तब समझ लीजिए वह अन्तकरणसे सर्वथा अपरिचित है। यह लोकोक्ति सत्य ही है कि अन्तःकरण हमें फूँक-फूँककर कदम रखना सिखाता है। अन्तःकरणवाला व्यक्ति अपनी बातमें बहुत आग्रही नहीं होता; वह हमेशा नम्र होता है; कभी उग्रतासे काम नहीं लेता; हमेशा समझौता करनेको, दूसरोंकी सुननेको तैयार रहता है; वह अपनी भूल स्वीकार करनेके लिए सदैव इच्छुक, यहाँतक कि उत्सुक रहता है।

पत्र-लेखक महोदय व्यर्थ ही परेशान हैं। यदि पचास हजार लोग यह कहते हैं की वे अपने अन्त:करण की खातिर ही अमुक काम कर रहे हैं, या अमुक नहीं कर रहे हैं, तो इससे क्या फर्क पड़ता है? कोई सचमुच अन्तःकरणके गुणसे युक्त है या अहंकार अथवा अज्ञानके वशीभूत होकर इस गुणसे विभूषित होनेका झूठा दावा कर रहा है, इन दोनोंतथ्योंपें भेद करने में दुनियाको कोई कठिनाई नहीं होती। तो अन्तःकरणकी आड़ लिये बिना भी समान परिस्थितियोंमें ऐसा ही आचरण करते हैं। यदि सार्वजनिक जीवनमें अन्तःकरणकी बातको दाखिल करनेसे बहुत कम लोग भी कठिनसे-कठिन परिस्थितिके मुकाबले मानवीय गरिमा और मानवीय अधिकारोंके लिए खड़े होना सीख पाये हैं तो इस तरह सार्वजनिक जीवनमें अन्तःकरणको स्थान देनेपर खुशी होनी चाहिए। ये सत्कार्य सदैव जीवित रहेंगे, जबकि पाखण्डपूर्ण कार्य साबनके झागकी तरह क्षण-भंगुर हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २१-८-१९२४