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मार्गकी कठिनाइयाँ

पैदा हो सकती। इसके लिए तो यश-प्रतिष्ठाकी अपेक्षा रखे बिना चुपचाप काम करते रहनेकी जरूरत है! एक ओर तो हमें हिंसाके जरिये नहीं बल्कि धैर्यपूर्ण प्रयत्नोंसे, जो केवल प्रेमकी प्रेरणासे ही सम्भव है, पूर्वग्रहोंकी दीवार ढाहनी है और कट्टरपंथियोंके साथ धीरज खोनेका मतलब अपना काम बिगाड़ना और अपनी तथा पंचमोंकी स्थितिको और भी खराब कर देना है। हमें दलील देकर उन्हें अपनी बात समझानी है, उनके व्यंग, उनके अपमान सहने हैं, यहाँतक कि बदलेके तौरपर अपना हाथ उठाये बिना उनकी लातें भी सहनी हैं। तब हम ऐसा वातावरण तैयार कर सकेंगे कि जिसमें कदरपन्थियों के सामने सत्य प्रकट हो जायेगा।

हमें अपने मनमें यह तय कर लेना है कि हम सचमुच क्या चाहते हैं। इस प्रश्नके सम्बन्धमें हमारे विचार जुदा-जुदा नहीं होने चाहिए। हमें यह समझ लेना चाहिए कि यह अन्तर्जातीय खान-पान या अन्तर्जातीय विवाहका प्रश्न नहीं है। साथ ही इस सवालका सम्बन्ध वर्ण-धर्मके, जिसे मतलबी लोग गलतीसे जाति-प्रथा मान बैठे हैं, उन्मूलनसे भी नहीं है। इसका तो सीधा-सादा सम्बन्ध अस्पृश्यतानिवारणसे, अकारण ही जो एक पंचम वर्ण बना दिया गया है, उसके उन्मूलनसे है। हमारे बीच ऐसे विचारोंवाले सुधारकोंका भी एक दल है जो वर्णधर्मको सर्वथा मिटा देना चाहता है। यहाँ हमें इस सुधारके गुण-दोषपर विचार नहीं करना है। अस्पृश्यता-आन्दोलनका उद्देश्य तो केवल इस पापपूर्ण अन्धविश्वासको दूर करना है कि किसी खास जातिमें उत्पन्न व्यक्तिके स्पर्शसे कोई इतना अपवित्र नहीं हो जाता कि उसके लिए प्रायश्चित्त करना आवश्यक हो। यह आन्दोलन जितना ज्यादा फैलता जायगा, इसमें जितनी अधिक तीव्रता आती जायेगी इसकी मर्यादाओंको समझना और उनका सावधानी के साथ पालन करना भी उतना ही जरूरी होता जायेगा। इस प्रकार जहाँ हमें कट्टरपन्थियोंको ललकारना है वहाँ उन्हें यह विश्वास भी दिलाना है कि हम जो कुछ कह रहे हैं उससे अधिक हमारा और कोई मतलब नहीं। उन्हें इस आन्दोलनके प्रयोजनको पूरा-पूरा समझ सकनेका मौका देना है। मुझे हर हफ्ते जो पत्र मिलते हैं, उनसे मालूम होता है कि हम आन्दोलनको मर्यादाओंको बराबर अपने सामने नहीं रखते। इसलिए कट्टरपन्थी लोग स्वभावतः सशंक हो गये हैं। इससे सुधारकोंका कार्य जितना चाहिए, उससे कहीं अधिक कठिन हो जाता है।

दूसरी ओर पंचम भाइयोंके साथ भी हमें समान रूपसे धैर्य के साथ काम लेना होगा। वे हमेशा हमारे प्रयत्नोंकी कद्र नहीं करते। वे प्रायः हमपर अविश्वास करते हैं। मैं जानता हूँ, जब अछूत बच्चोंको यह सिखाया जाता है कि स्पृश्योंकी थालीसे जूठा खाना अध:पतन है और अस्वास्थ्यकर भी है तो उनके माता-पिता बुरा मानते हैं। कुछ तो सफाईको भी बुरा समझते हैं। वे अपनी आदतोंसे उसी प्रकार दुराग्रहपूर्वक चिपके हुए हैं जिस प्रकार कट्टरपन्थी लोग इस विश्वाससे बँधे हुए हैं कि आदमी आदमीके स्पर्श से भी अपवित्र हो सकता है।

इसलिए कोई भी साधारण सुधारक जब यह अनुभव करेगा कि उसके सामने कितना भारी काम पड़ा हुआ है तो उसका निराश हो जाना स्वाभाविक ही है।