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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सवालपर झगड़ रहे हैं। दोनों इसका उपयोग परिवारके हितमें ही करना चाहते हैं। एक कमसे-कम यह जानता है कि परिवारकी सेवाके लिए उसे इस सम्पत्तिकी आवश्यकता नहीं है। जातिके अधिकांश लोग चाहते हैं कि वह सम्पत्तिका अपना उत्तराधिकार छोड़े नहीं। लेकिन क्या सत्याग्रही भाईका कर्तव्य यह नहीं कि उत्तराधिकारका त्याग करके झगड़ेको और उसमें नष्ट होनेवाले समय और शक्तिको बचा ले? हमारे सामने जो सवाल है, वह क्या इससे भिन्न है? फिर भी मैं अपने कदम बड़ी सावधानीसे उठा रहा हूँ। मैं जो-कुछ करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ वह यही है कि अशोभन विवादकी स्थिति न आये। अध्यक्ष बनना[१] मैं स्वीकार कर लूँगा, बशर्ते कि मुझे यह यकीन हो जाये कि इससे देशका हित होगा। इसका निर्णय करने के लिए अभी काफी समय है। कहाँ कितनी कताई हो रही है, इसके जो आँकड़े प्राप्त हो रहे हैं, उनसे काफी कुछ सीखनेको मिल रहा है। यदि कताईका ऐसा ही बुरा हाल रहा तो मेरे अध्यक्ष बननेसे क्या कोई ज्यादा लाभ होगा?[२] उस हालतमें कांग्रेससे अलग होकर एक कठोर कार्यक्रम बनाना और उसके लिए ईमानदार तथा इच्छुक लोगोंको ही सदस्य बनाना क्या ज्यादा अच्छा नहीं होगा? क्या उस व्यक्तिसे जो स्वयं विदेशी कपड़ा पहनता हो, चरखेके पक्षमें मत प्राप्त करनेका कोई उपयोग है? फिर कांग्रेसपर अधिकार जमाने के लिए भोली-भाली जनताको बहकाकर उससे लाभ उठानेकी बात भी सोचिए। क्या तथाकथित अपरिवर्तनवादी पूर्ण रूपसे ईमानदार रहेंगे? आप सारी चीजकी तनिक कल्पना तो कीजिए। यदि हम कांग्रेसको इस रस्साकशीके बिना अपने हाथ में नहीं रख सकते तो हमें स्वेच्छासे इसका त्याग कर देना चाहिए। मैंने आपके पत्रोंपर बहुत गम्भीरतापूर्वक विचार किया है, पर मुझे निश्चित तौरपर यही लगा है कि मैं ऐसे किसी मुकाबलेसे अपनेको अलग रखूँ। लेकिन फिलहाल तो मैं स्थितिको देख ही रहा हूँ। मैं मोतीलालजीके उत्तरकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

अब मलाबारपर आइए। अनेक सूत्रोंसे मेरे पास प्रार्थनापत्र आये हैं। आप मुझसे क्या काम लेना चाहते हैं? मैं सोच रहा था कि किसीको वहाँ आपके साथ मिलकर एक विशेष रिपोर्ट तैयार करने के लिए भेजूँ। परन्तु चूँकि अभी ऐसा कुछ नहीं हो पाया है इसलिए अब मैं चाहूँगा कि आप मझे इस विषयमें अपनी राय दें। बहुत बड़ी मात्रामें कपड़े इकट्ठे किये जा चुके हैं। उनके वितरणके विषयमें भी आप मुझे सुझाव दें।

मैं दिल्ली में कुछ ज्यादा प्रगति नहीं कर पाया हूँ। कुछ ठीक समझौता हो जायेगा, ऐसी आशा अब भी है। लेकिन बात बहुत नाजुक है।

हाँ, आपका अनुमान ठीक है। वे मित्र सरलादेवी[३] ही हैं। वे मुझपर और भी सामग्री लादना चाहती हैं, पर मैंने और गुंजाइश निकालनेसे इनकार कर दिया है।

  1. १. बेलगाँव कांग्रेसका।
  2. २. देखिए "पहली परीक्षा",२४-८-१९२४।
  3. ३. सरलादेवी चौधरानी।