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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरे सहकर्मी हैं और दूसरे हमारा देश स्वभावतः उदारताके लिए प्रसिद्ध है, जिसके निवासी होनेका आपको और मुझे अभिमान है। मैं जानता हूँ कि इन दो कारणोंसे ही में इस अभिनन्दन-पत्रके योग्य समझा गया हूँ।

मैं जब अपने कुछ मित्रोंके अनुरोधपर कुछ वर्ष पहले अहमदाबादमें आकर बसा था, तब मैंने सोचा था कि मुझे नगरकी कुछ सेवा करनी चाहिए और अपनेको इस नगरका निवासी कहलाने के लायक बनाना चाहिए। उस समय मैं आप बहुतेरे सज्जनोंसे परिचित न था; पर मैं डा० हरिप्रसादसे अपनी भावी कल्पनाओं और आदर्शोकी बातें किया करता था। उनसे मेरी मुलाकात अकसर होती रहती थी। दक्षिण आफ्रिकामें मैंने विभिन्न नगरोंकी जो-कुछ सेवा की उसका हाल मैं उन्हें सुनाया करता था। आप लोगोंको उसका कुछ भी पता नहीं है और इस बातकी मुझे खुशी है। सच्ची सेवा वही है जिसका दुनियामें ढींढोरा नहीं पीटा जाता। मैं डाक्टर हरिप्रसादके साथ अहमदाबादके स्वास्थ्य-सुधार और सफाई-सम्बन्धी तजवीजोंकी चर्चा करता था। हमने सोचा था कि एक ऐसी सेवा-समिति बनाई जाये जो नगरके कोनेकोने में घूमकर खुद गटरे, पाखाने तथा सड़कें साफ करे और लोगोंके सामने अपनी खुदकी मिसाल पेश करके उन्हें इन्हें साफ करना सिखाये। हमने नगर-विस्तारकी तजवीजें भी सोची थीं और हम लोगोंको यह सलाह देना चाहते थे कि वे गन्दी और तंग गलियोंमें रहना छोड़कर नगरके बाहर खुली जगहोंमें जा बसें। हमने सोच लिया था कि यह काम नये कर लगाकर संतोषजनक ढंगसे नहीं किया जा सकेगा। इसलिए हमने विचार किया था कि हम लोग भिक्षा-पात्र लेकर लक्ष्मी-पुत्रोंके घर पहुँचकर उनसे नगरके बीचमें जगह-जगह जमीनें माँगेंगे, जहाँ छोटे बालकोंके खेलनेके लिए बगीचे बनाये जा सकें। अहमदाबादके बच्चे-बच्चेको शिक्षा प्राप्त करनेकी पुरीपूरी सुविधायें सुलभ बनानेकी तजवीज भी हमने सोची थी। हमने यह भी सोचा था कि नगरकी तमाम दूध-शालाओंको नगरपालिकाके अधीन करके शुद्ध और सस्ता दूध लोगोंतक पहुँचानेका प्रबन्ध करें। श्री जीवनलाल देसाईने[१] तो यह भी सुझाया था कि मैं नगरपालिकामें शरीक हो जाऊँ और अपने सोचे उपायोंको काममें लानेकी कोशिश करूँ। पर होनहार कुछ और ही था। रौलट कानूनके रूपमें देशमें ऐसा भारी बवण्डर उठा, जो हम सबको अपनी लपेटमें ले उड़ा। उसमें कुछ लोगोंकी जानें भी गई जिनमें कसूरवार और बेकसूर दोनों ही थे। मुझे अपनी भयंकर भूलके लिए प्रायश्चित्त करना पड़ा।[२]वह बवण्डर आज भी मौजूद है--हाँ, उसकी शक्ल बदल गई है। हम लोग अपने बस-भर उसे रोकनेकी कोशिश कर रहे हैं, पर वह काफी नहीं है और कमसे-कम मुझे तो ऐसा लगता है कि अभी मै अपनी उन तजवीजोंको कार्यरूपमें परिणत करानेकी फुरसत न निकाल सकूँगा। पर मैं यह दावा भी क्यों करूँ

  1. १. वैरिस्टर; अहमदाबादके सार्वजनिक कार्यकर्ता; १९१५ में सत्याग्रह आश्रमकी स्थापनामें गांधीजीके सहायक।
  2. २. १४ अप्रैल, १९२० को गांधीजीने तीन दिनका उपवास करनेका निश्चय किया था; देखिए खण्ड १५, पृष्ठ २३१।