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विषयमें गांधीजीने कहा : "जहाँ सम्भव होगा वहाँ अपने वचनके अनुसार में स्वराज्यवादियोंकी सहायता करूँगा। किन्तु कांग्रेसके कार्यक्रमकी रचना तो पण्डित मोतीलाल नेहरूसे सलाह-मशविरा करके श्रीमती सरोजिनी देवी ही करेंगी।" (पृष्ठ ४५४)। गांधीजीको इस राष्ट्रीय संस्थाके अन्तिम स्वरूपके विषयमें कोई सन्देह नहीं था : "कांग्रेस चाहे जितनी लोकतान्त्रिक हो, उसमें कोई हर्ज नहीं। लेकिन लोकतन्त्रका मतलब दम्भ और अहंकार, लोगोंसे सेवा प्राप्त करनेका परवाना तो नहीं होना चाहिए। पंचोंकी वाणी परमेश्वरकी वाणी तभी हो सकती है, जब वह ईमानदारी, बहादुरी, नम्रता, विनय और आत्मत्यागकी वाणी हो।" (पृष्ठ ४८१)

इस अवधिमें स्वदेशीकी भी अधिकाधिक मीमांसा हुई। गांधीजीने कहा कि भारत किसानोंका देश है और उसमें करोड़ों व्यक्ति चारसे छ : महीनोंतक बिना किसी धन्धेके बैठे रहते है और इसका फल होता है आलस्य। "काहिल कौमको स्वराज्य हरगिज नहीं मिल सकता। काहिली विनाशका कारण है. . .यह काहिली हमारा महारोग है। हमारी कंगाली उसका लक्षण है।" (पृष्ठ १४३) खाली बैठे हुए लोगोंको कोई न कोई ऐसा काम दिया ही जाना चाहिए जो उनके साथ-साथ समाजको भी लाभ पहुँचाये। चरखा ही ऐसा काम देने में समर्थ साधन हो सकता है (पृष्ठ १४४)। किन्तु चरखेका महत्त्व इतना ही नहीं है। "उसका पैगाम हैसादा जीवन; मानव-जातिकी सेवा करना, औरोंको हानि न पहुंचाते हुए जिन्दगी बसर करना, धनी और निर्वन, मजदूरों और मिल-मालिकों, राजा और रंकमें अटट [प्रेम सम्बन्ध उत्पन्न करना। स्वभावतः यह बहत्तर सन्देश सबके लिए है। (पृष्ठ १९७)

स्वदेशीकी भावनामें संकीर्ण देशभक्तिकी कोई बात नहीं थी। गांधीजीने कलकत्तेकी एक सभामें विद्यार्थियोंसे कहा : "स्वदेशीको, जो-कुछ पहलेसे मौजूद है उसे, बचाकर रखनेकी वृत्ति ऐसी विवेकयुक्त है जो हमारे राष्ट्रीय जीवनमें निहित सारी उत्तम चीजोंको कायम रखेगी और साथ ही आधुनिक संसारमें जो-कुछ श्रेष्ठ है, पाश्चात्य सभ्यतामें जो-कुछ श्रेष्ठ है उसे भी ग्रहण करके अपने भीतर पचाती जायेगी, किन्तु बेशक उसका छिछला अनुकरण नहीं करेगी। इस तरह हम आज जितने अच्छे हैं, उत्तरोत्तर उससे अधिक अच्छे होते जायेंगे।" (पृष्ठ १४०)

जब श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुरने (परिशिष्ट ५) यन्त्रोंके विरोध और चरखेके समर्थनको लेकर गांधीजीके दृष्टिकोणकी आलोचना की, तो गांधीजीने 'यंग इंडिया' में अपने दृष्टिकोणको विस्तृत रूपसे सामने रखा : "दो टूक आलोचनाएँ पढ़कर तो मुझे खुशी होती है।. . .मशीनोंका अपना स्थान है, और अब इन्होंने अपने पाँव जमा भी लिये हैं। किन्तु जिस हदतक मानवीय श्रम अनिवार्य है, उस हदतक मशीनोंको उस श्रमका स्थान नहीं लेने देना चाहिए।" (पृष्ठ ४४२-४५)। व्यक्तिगत ईर्ष्या-सम्बन्धी दोषारोपणके सम्बन्धमें गांधीजीने कहा, "जहाँ हमारे मतभेद बुनियादी नहीं है और ऐसे मतभेदोंको बतानेकी मैने कोशिश की है-वहाँ कविगुरुकी दलीलमें ऐसी कोई बात नहीं है जिसको स्वीकार करते हुए भी मैं चरखेके विषयमें अपनी स्थिति कायम