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३५. पत्र : जितेन्द्रनाथ कुशारीको

१४८, रसा रोड
कलकत्ता
५ अगस्त, १९२५

प्रिय भाई,

आपका नपा-तुला पत्र मुझे बहुत पसन्द आया। यह है मेरा उत्तर। जल्दबाजी मत कीजिए। केवल चरखा ही आपको अपने लिये पर्याप्त काम दे देगा। सभी वर्गोंको इसके प्रति तत्काल एक-साथ आकृष्ट करनेके बारेमें सोचनेकी जरूरत नहीं है। मैं कमसेकम फिलहाल तो हिन्दू सभाएँ शुरू करनेकी सलाह नहीं दे सकता। स्कूल चलाने और चिकित्साकी व्यवस्था करनेसे जहाँतक कताईको मदद मिल सकती है वहाँतक ये कार्य कताई-संस्थाके कार्यक्रममें शामिल किये जा सकते है। अगर कार्यकर्ता आर्थिक लाभवाले धन्धोंमें लग जायेंगे तो वे अपना सारा ध्यान कताईमें नहीं दे पायेंगे। लेकिन अगर आप कताईके साथ-साथ बुनाईका भी काम शुरू करवा दें तो इस तरह आप अपनी संस्थाको आर्थिक दृष्टिसे अन्ततः आत्मनिर्भर बना देंगे। इस बीच आपको कताईके विकासमें अपना सारा समय लगानेवाले कार्यकर्ताओंके जीवन-यापनके लिए राष्ट्रसे सहायता देनेकी अपेक्षा रखनी चाहिए। आपको इस संस्थाके पास ऐसी सम्पत्ति होनेकी बात नहीं सोचनी चाहिए जिससे एक स्थायी आमदनी होती रहे।

ईसाई मिशनरियोंके उदाहरणसे आपका क्या तात्पर्य है, यह मैं समझा नहीं। आप तो खुद ही गाँवमें काम कर रहे हैं। लोगोंको आत्मनिर्भर, निर्भीक, स्वावलम्बी और स्वस्थ बना देने तथा उनमें अपनी बुद्धि-विवेकसे हर परिस्थितिका सामना करनेकी क्षमता पैदा कर देनेका मतलब है, उन्हें स्वराज्यकी दिशामें प्रवृत्त कर देना। इस स्वराज्य शब्दमें उपर्युक्त गुणोंके अलावा और कोई चीज नहीं है। अपने यहाँ परोपकारी संस्थाएँ राजनीतिक स्वतन्त्रताके विचारको स्थान नहीं देतीं। लेकिन आप न तो उसका बहिष्कार कर रहे हैं और न उसका प्रदर्शन कर रहे हैं, क्योंकि प्रदर्शनसे लोगोंके मनमें भ्रामक धारणाएँ पैदा होती है।

जिला बोर्ड वगैरहसे सहायता लेनमें जबतक आपको अपनी स्वतन्त्रताकी बलि देनेकी जरूरत न पड़े तबतक आप इनसे सहायता लेनेकी कोशिश कर सकते हैं। ग्रामवासियोंके असहयोगका अर्थ है अपने जीवनको यथासम्भव ऐसे साँचेमें ढालना जिससे वे सरकारसे स्वतन्त्र रह सकें। यदि वे झगड़ा न करें और पंचायती निर्णय मानें तो उन्हें अदालतोंमें जानेकी क्या जरूरत है? उन्हें अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलोंमें भी भेजनेकी कोई जरूरत नहीं है।

यदि कार्यकर्ताओंमें सच्चे अहिंसात्मक असहयोगकी भावना होगी तो वे ग्रामवासियोंमें भी अपनी बातसे नहीं, बल्कि अपने आचरणसे यह भावना भर देंगे।