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मेरे चौकीदार


मेरे चौकीदार इस पत्रका में स्वागत करता हूँ। पत्र-लेखकने तो केवल तीन कोषोंके बारेमें ही लिखा है। परन्तु अपनी जिन्दगीमें मैंने तीन नहीं, तेरह नहीं, तीस नहीं, बल्कि छोटे-बड़े सब मिलाकर शायद ३०० कोषोंके लिए पैसा जमा किया होगा। मेरा एक अनिवार्य नियम है। जहाँ मन्त्री अथवा खजांचीमें मुझे विश्वास नहीं होता वहाँ मैं कोष-संग्रहमें सहायता नहीं करता। आजतक मुझे कभी ऐसा देखनेको नहीं मिला कि कोषका हिसाब रखनेवाले खुद ही कुछ पैसे खा गये हों। इसका अर्थ यह नहीं कि किसी भी कोषमें एक भी पैसेकी गड़बड़ी नहीं हई। मन्त्री और खजांचीकी पर्याप्त सावधानीके बावजूद पैसेकी गड़बड़ी तो हुई है, पर उसमें मन्त्री आदि मुख्य अधिकारियोंको कोई दोष दिया जा सकता हो, ऐसा मैने नहीं देखा। जिस दिन मुझे आदमीको पहचाननेकी अपनी शक्तिपर सन्देह हो जायेगा, उसी दिनसे मैं किसी भी कोषके लिए धन-संग्रह करना बन्द कर दूँगा। इसका अर्थ यह नहीं कि मेरी पहचान हमेशा सही ही होती है, परन्तु यदि पहचान करनेकी मेरी शक्तिकी परीक्षा ली जाये तो मेरा विश्वास है कि उसमें मझे आम तौरपर पास होने योग्य अंक अवश्य मिल जायेंगे।

अब मैं उन कोषोंको अलग-अलग लेता हूँ। सत्याग्रह सभा[१] और स्वराज्य सभाके[२] कोषोंका हिसाब रखा गया है। उनकी आत्मा भाई शंकरलाल बैंकर थे। ये कोष छोटे-छोटे थे तथा इनके हिसाबकी बहियाँ मौजूद हैं।

जलियाँवाला बाग स्मारक-कोष बड़ा कोष[३] था। दस लाख तो नहीं, पर वह पाँच लाखके आसपासतक गया है। उसकी आत्मा भारतभूषण पण्डित मदनमोहन मालवीयजी थे। इसका पाई-पाईका हिसाब कई बार प्रकाशित किया जा चुका है और उसे पुस्तक रूपमें भी बेचा गया है तथा वह समाचारपत्रों में भी छापा गया है। इस रकममें से कुछकी जमीन खरीदी गई थी। आज तो उसमें एक सुन्दर बगीचा है, जिसकी भली प्रकार देखभाल की जाती है। यदि इस कार्यमें और अधिक प्रगति नहीं हुई तो उसका मुख्य कारण शायद मैं ही हूँ। उसकी शुरुआतके समय जो आशाएँ हमें थीं, वे अब नहीं रहीं। इस स्मारकके लिए कुछ भी बनवाना तभी शोभा दे सकता है जब साम्प्रदायिक झगड़े बन्द हो जायें। पाठकोंको यह जानकर दुःख होगा कि आज तो वह बाग भी झगड़ेका विषय बन गया है। एक बेकारकी इमारत चिनवाने में पैसा खर्च करनेकी मेरी हिम्मत नहीं होती। यदि कोई उपयुक्त इमारत मौजूदा न्यासियोंकी जिन्दगीमें नहीं बनती तो भविष्यमें बन जायेगी। इस बीच मुझे इस बातका सन्तोष है कि पैसा ठीक लोगोंके हाथों में है।

पाला सबसे बड़ा कोष तिलक स्वराज्यकोष था। उसकी आलोचना भी खूब हुई। उसका हिसाब पूरी तरहसे रखा गया था और वह आज भी मौजूद है। उसे पुस्तकके रूपमें भी प्रकाशित किया गया है। लेखा-परीक्षकोंने हिसाबको जाँचा है। मेरी यह

  1. इसकी स्थापना गांधीजी ने १९११ में बम्बईमें की थी।
  2. ऑल इंडिया होमरूल लीग; अप्रैल १९२० में इसका अध्यक्ष पद स्वीकार कर लेनेके बाद गांधीजीने इसका नाम स्वराज्य-सभा रखा।
  3. देखिए खण्ड १७, पृष्ठ ३३–३४।