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सात

न रख सकूँ। चरखेके सम्बन्धमें उन्होंने जिन बातोंका मजाक उड़ाया है, उनमें से बहुतसी तो ऐसी है जो मैंने कभी कही ही नहीं है। मैंने चरखेमें जिन गुणोंके होनेका दावा किया है, कविगुरुके प्रहारोंसे उन गुणोंकी सचाईपर कोई आंच नहीं आई है।" (पृष्ठ ४४६)। उन्होंने यह भी कहा, कि कवि जानते हैं कि मैं उनका जो आदर करता हूँ, वह हमारे मतभेदोंके बावजूद है।

पटना कांग्रेसकी बैठकमें जिस अखिल भारतीय चरखा संघकी स्थापना की गई थी, उसका समर्थन करते हुए गांधीजीने कहा कि. . ."संघ सेवाके लिए है, अधिकारके लिए नहीं।" (पृष्ठ ३०१)। उनके लेखे इस प्रकारके संगठनमें अधिकार अथवा नेतागिरीकी स्पर्धाके लिए कोई गुंजाइश ही नहीं हो सकती।

यात्राओंके दौरान गांधीजीके सामने साम्प्रदायिक समस्याका उल्लेख भी बारबार किया जाता रहा। उन्होंने प्रायः यह भी सलाह दी कि इन दोनों बड़े समाजोंको सर्वसामान्य रचनात्मक कार्यक्रममें लगे रहकर एक-दूसरेके समीप आना चाहिए (पृष्ठ १६२)। और साथ ही उन्हें मस्जिदके सामने बाजा बजाने आदि विवादास्पद सिद्धान्त-सम्बन्धी बातोंमें सिद्धान्तको छोड़े बिना किसी हार्दिक समझौतेपर पहुँचनेकी कोशिश करनी चाहिए। (पृष्ठ ३८३)

धर्मके प्रति गांधीजीकी दृष्टि बराबर तर्कसम्मत और समाजके हितसे ओतप्रोत रही। गोरक्षाके विषयमें लिखते हुए उन्होंने कहा : "मैं तो ऐसा मानता हूँ कि धर्ममात्रमें आर्थिक, राजनीतिक इत्यादि विषयोंका समावेश है। जो धर्म शुद्ध अर्थका विरोधी है, वह धर्म नहीं है; जो धर्म शुद्ध राजनीतिका विरोधी है, वह धर्म नहीं है। दूसरी ओर धर्म-रहित अर्थ त्याज्य है। धर्म-रहित राजसत्ता आसुरी है। अर्थ आदिसे अलग धर्म नामकी कोई वस्तु नहीं है। व्यक्ति अथवा समाज धर्मके सहारे जीवित रहता है, और अधर्मसे नष्ट होता है।. . .यदि गोरक्षा शुद्ध अर्थके विरोधमें हो तो उसका त्याग किये बिना कोई चारा नहीं है। सच तो यह है कि उस स्थितिमें हम यदि गोरक्षा करना चाहेंगे भी तो वह असम्भव सिद्ध होगी।" (पृष्ठ १६७)

अस्पश्यता-निवारणके विषयमें उन्होंने यह समझ लिया कि केवल व्याख्यानबाजीसे कुछ नहीं होगा : "अगर प्रचार-कार्यके पीछे पंचमोंकी स्थिति सुधारनेके लिए ठोस कामका बल न होगा, तो प्रचारसे कोई लाभ नहीं होगा।" (पृष्ठ १७७)। राँचीमें बोलते हुए उन्होंने कहा : "इसी अस्पृश्यताने भारतीयोंको सारे संसारमें अस्पृश्य बना दिया है। आपको इन अस्पृश्य भारतीयोंकी दशा देखनी हो तो दक्षिण आफ्रिका जाइए, आपको मालूम होगा कि अस्पृश्यता क्या चीज है।" (पृष्ठ २०५)। उन्हें इस बातका इत्मीनान था कि अस्पृश्यताका जो रूप समाजमें प्रचलित था वह हिन्दू-धर्मका अनिवार्य अंग हरगिज नहीं था। "हमारी आजकी अस्पृश्यतामें केवल अज्ञान और क्रूरता है। अस्पृश्यताको मैं हिन्दू-धर्मकी विकृति मानता हूँ। इससे धर्मकी सुरक्षा नहीं होती; बल्कि उसकी गति रुक जाती है।" (पृष्ठ ३६३-६४)

शिक्षकोंसे बातें करते हुए उन्होंने विदेशियोंके प्रभुत्वको हमारे अपने बीचकी कमजोरी बताया। "स्वराज्यका मतलब है सरकारी नियन्त्रणसे-चाहे वह विदेशी