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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इस कारखानेको देखनेका खयाल तो मेरे मनमें कई वर्षों पूर्व आया था, लेकिन एकके बाद एक ऐसा संयोग आता गया कि मैं वहाँ नहीं जा सका। इस बार भी अगर एन्ड्रयूजने मजदूरोंकी खातिर मुझसे वहाँ जानेको न कहा होता तो मैं वहाँ जा नहीं पाता। लेकिन एन्ड्रयूज और ऐसे ही कई दूसरे लोग मुझे लाचार कर सकते है और अपनी इच्छानुसार जिधर ले जाना चाहें, घसीट कर ले जा सकते हैं। इसलिए मैं जमशेदपुर गया और वहाँ दो दिन ठहरा।[१]

लेकिन इतने बड़े कारखानेमें कोई दो दिनमें क्या-क्या देख सकता है? मैं एक भी चीज पूरी तरह नहीं देख सका। मैं खुद एक मजदूर ही हूँ और मजदूरोंकी सेवाके लिए ही वहाँ गया था; फिर भी मजदूर लोग किन परिस्थितियोंमें रहते हैं, मैं इसका कोई अंदाजा नहीं पा सका। उनके घर-आँगन देखे बिना मैं उनके बारेमें क्या जान सकता था?

फिर भी मेरे मनपर जो छाप पड़ी, वह यह है। वहाँकी आबहवा अच्छी है। लोगोंको पानी बहुत अच्छा मिलता है। मकान बाहरसे अच्छे लगते हैं। बाहरसे देखनेमें लोग भी सुखी लगे। सड़कें अच्छी दिखीं। मजदूरोंके संघके अध्यक्ष श्री एन्यूज हैं। तीन बातोंका कोई निबटारा नहीं हो पाया था, लेकिन थोड़ीसी बातचीतसे वे निबट गई। मजदूर संघको पेढ़ी मान्यता दे; संघ अपनी इच्छाके अनुसार अपने पदाधिकारियोंकी नियुक्ति स्वयं करे, संघके मन्त्री श्री सेठी बने रहें और उन्हें फिरसे पेढ़ीमें नौकरी देनेके सवालपर श्री रतन टाटा विचार करें; यदि मजदूर लिखित अर्जी दें तो पेढ़ी उनके द्वारा संघको दिया जानेवाला उनका चंदा पेढ़ीको जितने समय ठीक लगे उतने समयतक उनके वेतनमें से सीधा काट लिया करे और चन्देकी वह रकम संघको दे दे; संघ अपने अस्तित्वका उपयोग मुख्य रूपसे मजदूरोंकी आन्तरिक स्थिति सुधारनेमें करे—इन तमाम बातोंको स्वीकार करके इस पेढ़ीने अपना नाम गौरवान्वित किया है। अब मजदूरोंको अपना फर्ज अदा करके दिखाना है।

इस बार मैं महादेवको अपने साथ ले जा सका था, इसलिए पाठक उनके लेखोंमें सारा विस्तृत वर्णन पानेकी आशा रख सकते है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १६–८–१९२५
  1. अगस्त १९२५ के दूसरे सप्ताह में।