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४१. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

श्रावण कृष्ण १३
१७ अगस्त, १९२५]

भाईश्री ५ घनश्यामदासजी,

आपका पत्र फलाहारके विषयमें मीला है। मैंने कई वर्षोंतक केवल सूका और 'लीला' [ताजा] मेवा हि खाया है। उससे मुझको कुछ भी हानि नहिं हुई। उसी समय मैने नीमकका भी त्याग कीया था। आपको में इस प्रयोग करनेकी सलाह नहिं दे सकता हूँ। परन्तु आप यदि नीमकका और घीका कुछ अरसे तक त्याग करे तो विषयाग्निको शान्त करने में अवश्य सहाय मीलेगी। मसाला, पानसोपारी इ॰का तो त्याग होना हि चाहिये। केवल भोजनके संयमसे मनुष्य कामादिको नहिं जीत सकता है। परंतु संयमी एक भी बाह्योपचारको छोड़ नहिं सकता है। विषयोंका आत्यंतिक क्षय तो परके दर्शनसे हि हो सकता है, यह 'गीता'—वाक्य है और सत्य है। आरोग्य दिग्दर्शन नामका मेरा पुस्तक आप अवश्य पढ़ें यदि आपने न पढ़ा हो तो। उसका हिंदी अनुवाद वर्षोंसे छप चुका है।

आपका स्वास्थ्य अब बिलकुल अच्छा हो गया होगा। आपकी धर्मपत्नीकी शांति चाहता हूनं।

आपका,
मोहनदास गांधी

मूल पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ६११२) से।
सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला
 

४२. पत्र : देवचन्द पारेखको

सोमवार, १७ अगस्त, १९२५

भाईश्री ५ देवचन्दभाई,

आपका पत्र मिला। मुझे पहली योजना पसन्द तो जरूर है, लेकिन उसके विषयमें और अधिक विचार करनेकी जरूरत है। मैं ५ तारीखको आश्रम पहुँचनेकी उम्मीद रखता हूँ। वहाँसे ९ तारीखको फिर लौटना पड़ेगा। लेकिन इन चार दिनोंमें हम कुछ लोग मिलकर बातचीत कर लें तो अच्छा हो। मुझे भय यह है कि कहीं ऐसा हो कि हमारी छूटका लाभ सुखी लोग ही उठा लें और दुःखी लोग रह जायें। हमारी मान्यता यह है कि चरखा दुखीका दुःख दूर करता है। फिर, हमारी यह मान्यता भी है कि काठियावाड़में गरीबी बढ़ती जा रही है। अगर यह मान्यता सही