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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वाली जिन्दगी जीते है, इतनी छुट्टी लेनेकी और भी कम गुंजाइश है। सर विलियमने कहा था कि भारतकी आबादीका दसवाँ हिस्सा प्रतिदिन एक ही वक्त खाकर रहता है और एक वक्तके खाने में भी उसे सूखी रोटी और चुटकी-भर गन्दे नमकके अलावा और कुछ नहीं मिलता है। वे नहीं जानते कि दूध या घी क्या चीज है और न उन्हें कोई सब्जी ही मिलती है।

जैसा कि आप जानते हैं अकाल भारतके लिए एक पुराना रोग बन गया है। लेकिन यह पैसेका अकाल है। आप सब व्यवसायी लोग हैं, इसलिए मैं आप लोगोंसे कहता हूँ कि ऐसे लोगोंके लिए किसी एक पूरक धन्धेका होना अत्यन्त आवश्यक है, और अगर यह अत्यन्त आवश्यक है तो उस पूरक धन्धेमें कुछ ऐसी खूबियाँ होनी चाहिए जिससे कि वह इस विशाल जन-समुदायके उपयुक्त हो सके। इसलिए इस धन्धे को ऐसा भी होना चाहिए, जिससे सबका सम्बन्ध हो। यह धन्धा ऐसा होना चाहिए जिससे उत्पन्न मालकी आवश्यकता सारी आबादीको हो और इसलिए जिसे सब लोग खरीदना चाहें। इसलिए यह सुझाव बेकार होगा कि उन्हें विलासिताकी चीजें बनानी चाहिए। फिर, यह काम ऐसा होना चाहिए, जिसे वे आसानीसे सीख सकें। जिस उत्पादनमें बहुत कौशलकी जरूरत हो या जिसके योग्य यन्त्र तैयार करने में बहुत कारीगरीकी जरूरत हो या जिसका उत्पादक यन्त्र बहुत महँगा हो, वह भी उपयोगी सिद्ध नहीं होगा।

उपस्थित लोगोंको एक छोटी-सी तकली दिखाते हुए श्री गांधीने कहा कि इस छोटेसे साधनसे प्रति घंटे ५० गज सूतका उत्पादन हो सकता है। चरखेपर औसतन ४०० गज सछत काता जा सकता है। चरखेपर अभीतक प्रति घंटे अधिकसेअधिक ८५० गज सूत काता गया है। मिलके तकुवेपर अभीतक प्रति घंटा १० अंकका ८५० गज सूत नहीं काता जा सका है। यह तो सिर्फ आदमीके हाथके कौशलसे ही सम्भव है। मिल तो इतना ही कर सकती है कि चन्द औरतें शक्तिकी सहायतासे हजारों तकुओंको एक-साथ चलायें। यह अच्छी चीज है, इसका अपना स्थान है। मैं मशीनको उसके उचित स्थानसे हटाना नहीं चाहता। मैं यह कहनेका साहस करता हूँ कि भारतके इन करोड़ों किसानोंके लिए चरखके समान कोई दूसरा सर्वग्राह्य गृहउद्योग नहीं है। गाँवोंमें आने-जानेवाले व्यक्ति देख सकते हैं कि वहाँ अब भी चरखा बिलकुल लुप्त नहीं हो गया है—वहाँ किसी-न-किसी प्रकारका चरखा आज भी है। सारे भारतमें स्त्रियाँ इसे बिना किसी कठिनाईके अपना पा रही हैं। क्योंकि यह चीज उनके संस्कारमें है। वे उसे पहचानती हैं। लेकिन एक दूसरी शर्त भी पूरी करनी है। चरखके उत्पादनका उपयोग कौन करेगा? स्वभावतः भारतके लोग—जैसा कि वे २०० वर्ष, बल्कि सिर्फ १०० वर्ष पहले भी करते थे। उस समय एक-एक भारतीय भारतकी स्त्रियोंके द्वारा काते हुए सूतसे भारतके बुनकरों द्वारा बुने कपड़े पहनता था। बुनाई-उद्योग बिलकुल समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन कताई-उद्योग खत्म हो गया है और इसका कारण यह है कि कताई-उद्योग अपने आपमें एक बहुत बड़े जन-समुदायका निर्वाह नहीं कर सकता। यह तो एक पूरक उद्योग ही हो सकता