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आठ

सरकारका नियन्त्रण हो या राष्ट्रीय सरकारका-मुक्त होनेके लिए सतत प्रयत्न करते रहना। अगर स्वराज्य होनेपर भी लोग अपने जीवनके हर विषयकी व्यवस्थाके लिए सरकारके ही मुखापेक्षी बने रहेंगे तो वह स्वराज्य सरकार एक निस्सार चीज ही होगी।" (पृष्ठ ३५)।"स्वराज्य कुछ आसमानसे तो नहीं टपक पड़ेगा। इसके लिए धैर्य, कठिनाइयोंको झेलते हुए अडिग रहने, अथक परिश्रम और साहस तथा परिस्थितियों और परिवेशकी सही पहचान तथा पकड़की आवश्यकता होगी।" (पृष्ठ १२३)

गांधीजी भारतकी स्वतन्त्रताको व्यक्ति और समाजके नैतिक उत्थानका कारण मानते थे और वे यह भी मानते थे कि हमारे ऐसे स्वराज्यका संसारकी गतिविधिपर भी असर पड़ेगा। २८ अगस्तको कलकत्तेमें बोलते हए उन्होंने कहा : "मैं अपने देशकी आजादी इसलिए चाहता हूँ कि दूसरे देश हमारे आजाद देशसे कुछ सीख सकें। जिस प्रकार आज देश-भक्तिका यह तकाजा है कि व्यक्तिको परिवारके लिए मरना चाहिए, परिवारको गाँवके लिए, गाँवको जिलेके लिए, जिलेको प्रान्तके लिए, प्रान्तको देशके लिए, उसी प्रकार में अपने देशकी आजादी इसलिए चाहता हूँ कि उसकी शक्ति और साधनोंका उपयोग मानवताके लाभके लिए हो सके।. . ." इसी अविस्मरणीय भाषणमें उन्होंने भारतकी राष्ट्रीयता सम्बन्धी अपनी मान्यताके विषयमें कहा : "मेरा राष्ट्र-प्रेम यह है कि हमारा देश आजाद हो सके; इसलिए आजाद हो सके कि जरूरत पड़े तो मानव-जातिकी रक्षाके लिए सारा देश मर मिटे। इसमें किसी जातिसे घणा करनेकी गंजाइश नहीं है। मेरी कामना है कि हमारी राष्ट्रीयता ऐसी ही हो।" (पृष्ठ १३७)

इस अवधिमें देशके बाहर भी गांधीजीके सन्देशके प्रति लोगोंकी दिलचस्पी बढ़ने लगी थी। यूरोप और अमेरिकासे विभिन्न समस्याओंके विषयमें उनकी राय जाननेकी इच्छासे पत्र आते रहते थे। पत्र-लेखकोंको उत्तर देनेके साथ-साथ गांधीजीने 'यंग इंडिया' में भारत और यूरोपमें हिंसाके समान आधारके विषयमें भी लिखा : "इसमें सन्देह नहीं कि यूरोपके लोगोंको राजनीतिक सत्ता प्राप्त है, किन्तु स्वराज्य नहीं। उनके आंशिक लाभके लिए एशिया और आफ्रिकाकी जनताका शोषण किया जा रहा है; किन्तु उधर वे स्वयं लोकतन्त्रके नामपर शासक वर्ग या शासक जाति द्वारा चसे जा रहे हैं। इसलिए मूलतः वे भी उसी रोगसे ग्रस्त जान पड़ते है, जिसने भारतको जर्जर बना रखा है। अतः ऐसा लगता है कि इसके लिए भी उसी उपचारका प्रयोग किया जा सकता है। यदि तमाम छद्म आवरणोंको हटाकर देखा जाये तो स्पष्ट हो जायेगा कि यूरोपके जन-साधारणका शोषण भी हिंसाके बलपर ही होता है।" (पृष्ठ १५६)

यूरोप और अमेरिकाके यात्रा-सम्बन्धी निमन्त्रणोंका गांधीजीने अपने स्वभावानुकूल उत्तर दिया : "मेरी देश-भक्तिमें सामान्यतः सारी मानव-जातिका हित समाविष्ट है। अतएव मेरी भारत-सेवामें सारी मनुष्य-जातकी सेवाका अन्तर्भाव हो जाता है. . .यदि मुझे अमेरिका और यूरोप जाना ही हो तो अपनेको शक्तिमान बनाकर जाना चाहिए, न कि अपनी कमजोरीकी हालतमें. . .मेरा मतलब देशकी कमजोरीसे है।"