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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
स्वराज्यवादियोंको वचन देकर आपने एक बार फिर उनकी पूरी-पूरी उपेक्षा की है। आपके कह देनेपर 'अपरिवर्तनवादियों' को अपनी मर्जीके खिलाफ इसे फिर स्वीकार करना ही होगा। लेकिन यह तो उन्हें मजबूर करने जैसा है।
क्या सिर्फ कौंसिल-कार्यक्रम हो राजनीतिक कार्यक्रम है? क्या कौंसिलें देशको सविनय अवज्ञा करने अथवा करोंकी अदायगी बन्द करनेकी शक्ति देंगी? आपके नेतृत्वमें कांग्रेस काम करनेवाली संस्था बन गई थी और अब आप फिर उसे एक ऐसी संस्था बनाना चाहते हैं जहाँ बैठकबाज राजनीतिज्ञ केवल शोर मचाकर अपना विरोध प्रकट करते रहें। आज हमारी कांग्रेस कमेटियाँ और कुछ नहीं तो कताई संघ, खादी डिपो या खादीकी दुकानोंके रूपमें तो काम करती हैं। लेकिन इसके बाद तो वे महज विचार-गोष्ठियाँ करते रहनेवाली संस्थाएँ बन जायेंगी।
आप वैकल्पिक मताधिकारका सुझाव रखते हैं—अर्थात् कोई चाहे तो पैसा देकर और न चाहे तो अपना काता हुआ सूत देकर सदस्य बन सकता है। लेकिन महाराष्ट्र दलको न तो यह बात पसन्द है और न खादी पहनना ही। वे इसका विरोध करने जा रहे हैं और उन्हें पूरा भरोसा है कि इस वर्ष तो नहीं, लेकिन अगले वर्ष वे इसको समाप्त करवा देंगे। उन्हें आपका खादी-संगठन नहीं चाहिए। फिर क्यों न इसे कांग्रेससे बाहर ही शुरू किया जाये और कांग्रेसको सम्पूर्ण रूपले स्वराज्यवादियोंके हवाले कर दिया जाये?

पत्र-लेखक भाई यह भूल जाते हैं कि मैं अपनेको किसी दल-विशेषका नहीं मानता और न यही मानता हूँ कि मेरा कोई अपना दल है—भले ही इसका कारण सिर्फ यही हो कि मैं देखता हूँ कि मेरा रुख और मेरी स्थिति अकसर बदलती रहती है। वैसे मैं इन परिवर्तनोंको अपना लगातार विकास ही मानता हूँ। परिस्थितियाँ बदलें तो उनके साथ मेरे सलूकमें परिवर्तन होना ही चाहिए, और फिर भी अन्दरसे मुझे सर्वथा अपरिवर्तित रहना है—यह है मेरी स्थिति। मुझे किसी व्यक्तिसे जबरदस्ती कोई काम करानेकी तनिक भी इच्छा नहीं है। मैं तो बराबर सुननेवालोंके दिल और दिमाग, दोनोंको साथ-ही-साथ प्रभावित करनेका प्रयत्न करता रहा हूँ। मुझे उम्मीद है कि आगामी बैठकमें जो चर्चा होगी उसमें हरएक अपनी बात सर्वथा मुक्त मनसे और निस्संकोच कहेगा। मैं यह भी चाहता हूँ कि मेरी रायको, उसमें जो अनेकानेक रायें प्रकट की जायेंगी, उनमें से एक माना जाये, इससे अधिक कुछ नहीं। मैं जानता हूँ कि यह बात बहुतसे लोगोंको बिलकुल बेतुकी लगेगी। लेकिन अगर मैं लगातार मुक्तभावसे अपनी बात कहता रहा तो शीघ्र ही ऐसी स्थिति आ जायेगी कि जो लोग अपनेको मजबूरन मेरा साथ देते हुए पाते हैं वे मेरा विरोध करनेको खड़े हो जायेंगे। लेकिन, आखिरकार मैंने जो-कुछ किया है वह शिक्षित भारतीयोंके मनकी ठीक-ठीक थाह पा सकनेका परिणाम-भर है। मैं नहीं चाहता कि शिक्षित भारतीयोंके हाथोंसे कांग्रेसको जबरदस्ती छीन लूँ। वे तो नये